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अष्टांगहृदये ।
( ९४ )
अर्थ- चीत के रसवीर्य और विपाक के तुल्य होनेपर भी दंती विरेचनी होती है । इसीतरह महुआ के रसादि के तुल्य होनेपर भी मुनक्का विरेचनी है किन्तु प्रभाव के का रण चीता और महुआ विरेचक नहीं है । दूध रसादिके तुल्य होने पर भी घृत अग्निसंदीपन है, परन्तु दूध अग्नि संदीपन नहीं है ।
ग्रंथकारका वचन |
इति सामान्यतः कर्म द्रव्यादीनां पुनश्च तत् विचित्र प्रत्ययारब्धद्रव्यभेदेन भिद्यते ।
अर्थ - इसतरह द्रव्यरस वीर्यादिकों का काम सामान्य रीतिसे वर्णन किया गया है । अब फिर अनेक प्रकारके विचित्र कारणों से उत्पन्न द्रव्यभेद में जैसा कर्मभेद होता है, उसका वर्णन किया जायेगा । स्वादुर्गुरुश्च गोधूमो वातजिद्वातहृद्यवः२८ उष्णा मत्स्याःपयःशीतं कटुः सिंहो न शूकरः। तरमाद सेोपदेशन न सर्व द्रव्यमाविशेत् ॥ २९॥
अर्थ- ग्रन्थकार इस जगह कारणानुरूप कार्य और विचित्र कारणोत्पन्न द्रव्यभेद में कर्मभेद का दृष्टान्त देकर कहते हैं कि मधुर रस और गुरु गुण ये दोनों ही वातनाशक हैं। गेंहूं मधुररस और गुरुगुण युक्त होने से घातनाशक है, इसलिये गेंहूं का वातनाशक कर्म कारणानुरूप है | किन्तु जौ में भी दोनों हीं मधुररस और गुरुगुण हैं परन्तु यह वातनाशक नहीं किन्तु वातवर्द्धक है, इसलिये जौका कार्यभेद विचित्र कारणोत्पन्न द्रव्यभेद में ही है | अर्थात् जौ अनिर्वचनीय कारण में उत्पन्न हुआ है यह मधुररस और गुरु गुण युक्त होनेपर भी वातनाशक नहीं है किन्तु
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। वातवर्द्धक है । इसीतरह मछली और दूध दोनोंहीं मधुररस युक्त हैं इसलिये दोनोंहीं शीतवीर्य होने चाहिये परन्तु मछली उष्णA और दूध शीतवीर्य है । इसीतरह सिंह और शूकर दोनोंहीं मधुर रसयुक्त होने के कारण दोनोंहीं मधुरविपाकी होने चाहिये परन्तु सिंह कटुविपाकी है और शूकरमधुर विपाकी है । इसलिये रससंबंधी जिन जिन बातोंका वर्णन किया गया है उसीके अनुसार संपूर्ण द्रव्यों का निर्देश करै । जिस जगह कारणानुरूप कार्य होता है वही प्रयोग करना चहिये, और जगह नहीं करना चाहिये || इति श्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
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दशमोऽध्यायः ।
अथाऽतो रसभेदीयमध्यायं व्याख्यास्यामः । अर्थ - अब हम यहांसे रसभेदीय अध्याकी व्याख्या करेंगे ।
रसादिका उत्पत्ति | क्ष्माभोऽग्निक्ष्मांऽबुतेजः खवाय्वग्न्यनिलगो ऽनिलैः । द्वयोल्बणै क्रमाद्भूतैर्मधुरादिरसोद्भवः॥ १ ॥
अर्थ - पृथिव्यादि पंचमहाभूतों में से दोदो की अधिकता होनेसे क्रमपूर्वक मधुरादि छः रसोंकी उत्पत्ति होती है । जैसे भूमि और जलकी अधिकता से मधुर, पृथ्वी और अग्निकी अधिकतासे अम्ल, जल और अग्नि
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