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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अ० १० सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । ( ९५) की अधिकतासे लवण, आकाश और वायु | कटुरस जिह्वा के अग्रभाग में अग्नि की की अधिकतासे कटु, अग्नि और वायुकी / ज्वालासी लगा देता है, सुखमें झलझलाहट अधिकतासे तिक्त, तथा भूमि और वायुकी | होकर आंख नाक और मुखसे पानी टपकने अधिकतासे कपायरस उत्पन्न होताहै । । लगताहै, कपोल जलने लगतेह । छःरसोंके गण । । कषायरस ( कसेला ) जिह्वा में जड़ता तेषां विद्याद्रसं स्वादु यो वक्रमनुलिपति ।। करता है अर्थात् अन्य रसों का स्वाद लेनेमें आस्वाद्यमानो देहस्य हादनोऽक्षप्रसादनः ॥ जिह्वा शक्तिहीन होजाती है । कण्ठके सोतों प्रियापिशीलिकादनिाम् में विरुद्वता होता है। ____ अम्लः क्षालयतेमुखम् । मधुरस के कर्म । हर्षणो रोमदंतानामक्षिश्रुवनिकाचनः ॥३॥ रसानामिति रूपाणि काणि लवणःस्थेदयत्यास्यं कपालगलदाहकृत् ।। मधुरो रसः॥६॥ तिक्तो विशदयत्यास्यं रसनं प्रतिहंति च ।४। आजन्मसात्म्यात्कुरुते धातूना प्रबलं बलम् । उद्वेजयति जव्हान कुर्वश्चिमिचिमां कटः ।। बालवृद्धक्षतक्षीणवर्णफेशदियौजसाम् ॥७॥ सावयत्यक्षिनासास्यं कपोलौ दहतीवच॥ प्रास्तो वृंहणः केटाःस्तन्यसंधानकृद्गुरुः। कषायो जडयेजिव्हां कंठस्रोतोविबंधकृत । आयुष्यो जयिनः विधिःपित्तानिलविषाऽपह अर्थ- इन छ: रसोंमेंसे जिस रसका कुरुतेऽत्युपयोगेन समेदाकफजान् गदान् ।' स्थौल्याशिहादसंन्यासमेहगंडाबुंदादिकान् स्वाद लैनेसे मुखमें लिहलावट, देहमें आल्हा अर्थ इस तरह मधुरादि छः रसोंके लक्षदकता, इन्द्रियों में प्रसन्नता होती है उसे ण संक्षेपसे कहे गरे हैं, अब विशेष रूपसे मधररस कहतेहैं यह रस चींटियों को अ उनके लक्षण कहते हैं। धिक प्रिय होताहै। मधुररस- धातुओंके वल को बढाता है अम्लरस को जिह्वापर रखनेसे मुखमे | क्योंकि वह जन्मकाल हीसे देह के सात्म्य पानी भर आताहै, रोमांच खडे हो जातेहैं, | होता है, जैसे वालकपन हाँसे मधुररस युक्त दांतोंमें खटाई आजाती है । आंख और दुग्धादि के सेवन से शरीरस्थ रस रक्तादि भृकुटी संकुचित होजाती है । धातुओंमें बल बढतारहताहै ,यह रस वालक, लवणरस मुखमें स्राव तथा कपोल और | वृद्ध, क्षतक्षीण, व्यक्तिओं का बल बढाताहै, कंठमें दाह करताहै । अन्नमें रुचिबढाताहै वर्ण, केश,इन्द्रियगण और ओज की वृद्धिमें यह गुण प्रसिद्ध है इसलिये उसका यहां अति प्रश स्तहै । यह पुष्टिकर्ता, कण्ठ को उल्लेख नहीं है। हितकारी,स्तनों में दुग्ध बढाने वाला, टूटी तिक्तरस (तीखा वा चरपरा) मुखमें विशद- अस्थिकोजोड़नेवाला,भारी,आयुवर्द्धक,जीवन, ता करता है और रसनेन्द्रिय को नष्टकरदेता | स्निग्ध तथा पित्त, वायु और बिषकानाशकहै अर्थात् उसमें दूसरे रसके ग्रहण करने की। इस मधुररस का अत्यन्त सेवन मद रोग शक्ति नहीं रहती है। | तथा कफज रोगको करताहै, तथा स्थूलता For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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