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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० ४ www. kobatirth.org कल्पस्थान भाषाटीकासमेत । निरूहण की कल्पना | प्रसूतांशैर्धृतौ द्रवसातैलैः प्रकल्पयेत् ३० अर्थ ·--- · घृत, , मधु, बसा और तेल प्रत्येक दो पल, सेंधानमक एक तोला, हाऊत्रेर दो तोला इन सब द्रव्यों से यापना वस्ति की कल्पना करनी चाहिये । पावादि रोगनाशक वस्ति । सिद्धवस्ति । यापनो घनकल्केन मधुतैलरसाज्यवान् । पंचमूलस्य निःक्वाथस्तैलं मागधिका मधु पायुघोरुवृषणवस्तिमेहनशूलजित् । ससैंधवः समधुकः सिद्धबस्तिरिति स्मृतः अर्थ-मोथे के कल्क के साथ मधु, तेल, अर्थ = पञ्चमूल का काढा, तिल का मांसरस और घृत मिलाकर जो वस्ति दी तेल, पीपल, शहत, सेंधानमक, और जाती है वह गुदा, जंघा, ऊरु, वृषण, वस्ति मुलहटीं मिलाकर वस्ति की कल्पना करै । मेहन और शूल को जीतने वाली होती है । यह सिद्ध वस्ति है । युक्तरथनामा बस्ति ॥ | परंडमूलनिः काथो मधुतैलः ससैंधवः । पत्र युक्तरथो बस्तिः सवचापिप्पलीफलः॥ अर्थ-अरंड की जड़के काढे में मधु, तेल और सेंधानमक तथा वच, पीपल और नफल का कल्क मिलाकर वस्ति का प्रयोग करे । यह वस्ति युक्तरथ कहलाती है । सुश्रुत में कहा है, रथेष्वपिहि युक्तेषु हस्त्य - श्वेष्वपियोजयेत् । तस्मान्न प्रतिषिद्वोयमतो युक्तरथः स्मृतः । अर्थात् यह हाथी घांडे आदि से जुते हुए रथमें भी प्रतिषिद्ध नहीं होती है । | दोषनाशक वस्ति | साथ मधुषथशताह्वाहिंगुसैंधवः । सुरदारुवचारास्नाबस्तिर्दोषहरः परः ३२ अर्थ - - अरण्ड की जड़ के काढ़े के साथ शहत, बच, सौंफ, हींग, सेंधानमक, सफेद बच, रास्ना मिलाकर वस्तिका प्रयोग करने से दोषों का नाश होजाता है, यह औषध बहुत उत्तम है । ८९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७०५ ) कफादिनाशक वस्ति । द्विपंचमूलत्रिफलाफलाविल्वानि पाचयेत् ॥ गोमूत्रेण च पिंटैश्च पाठावत्सक तोयदैः ॥ सफलैः क्षौद्रतैलाभ्यां क्षारेण लवणेन च । युक्तो बस्तिः कफव्याधिपांडुरोगविसूचिषु शुक्रानिलविबंधेषु बस्त्याटोपे च पूजितः अर्थ- दशमूल, त्रिफला, मैनफल और बेलगिरी, इन सब द्रव्यों को गौ मूत्र में पकाकर काथ करले, इस काथमें पाठा, इन्द्रजौ, मोथा और मैनफल पीसकर डालदे, तथा मधु, तिलका तेल, जवाखार और सेंधानमक मिलाकर वहित का प्रयोग करें, इस बस्ति से कफरोग, पांडुरोग, विसूचिका वीर्यैरोध, वायु विबंध तथा आटोप रोग दूर होजाते हैं ॥ For Private And Personal Use Only वातनाशक बस्ति । मुस्तापाठामृत रंड बलारानापुनर्नवा ॥ ३६ ॥ मंजिप्रारग्वाधोशीरत्रायमाणाक्षरोहिणीः । कनीयः पंचमूलं च पालिकं उद्नाष्टकम् ॥ जलाढके पचेत्तच्च पारशेषं परिस्रुतम् । क्षीरद्विप्रस्थसंयुक्तं क्षीरशेषं पुनः पचेत् ॥ सपादजांगलरसः सस्रार्पर्मधुसैंधवः । पिष्टैर्यष्टिमिसिश्यामाकलिंग करसांजनः ॥ वस्तिः सुखोष्णो मांसान्निवलशुक्रविवर्धनः ॥ घातावृङ्वो हमे हा गुल्मविण्मूत्रसंग्रहम् ॥ विषमज्वरवास पवमानप्रवाहिकाः । aturesटीकुक्षिमन्याश्रोत्रशिरोरुजः ॥
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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