SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६२) अष्टांगहृदये । न देवे, आठ मास पीछे वस्ति कर्म से कुछ | अब व्यक्त गर्भ के लक्षण कहते हैंहानि नहीं है देनाही चाहिये । इन सब व्यक्तगर्भ के लक्षण । पर्जित कर्मों के करने से कुसमय गर्भपात | क्षामता गरिमा कुक्षी मूर्खाच्छदिररोचकः। होजाता है अथवा कुक्षि में ही गर्म सूख जुंभाप्रसेकासदनं रोमराज्याः प्रकाशनम् । जाता है वा मर जाता है ॥ अम्लेष्ठतास्तनौपीनौ सस्तन्यौ कृष्णचूचुकी बातलादि अहार का निषेध । पादशोफोविदाहोऽन्येश्रद्धाश्चविविधात्मिका ___ अर्थ-क्षीणता,उदर में भाग़पन, मूर्छा घातलैश्चभवद्गर्भःकुजांधजडवामनः।। पित्तलैः खलतिःपिंगः श्वित्री पांडुः कफात्मभि | | खाने पीने में अरुचि, जंभाई, मुखसे लार अर्थ-बादी करने वाले आहारके सेवन गिरना, देह में शिथिलता, रोमांच खडे से गर्भ कुवडा, अन्धा, जड और बामन होना, खट्टी वस्तुओं के खाने की इच्छा, (बौना) हो जाता है । पित्तजनक भोजन | स्तनों में मोटापन, स्तनों में दूध का प्रासे गंजा और पीले रंग का होताहै । तथा | दुर्भाव, चूचुक अर्थात् स्तनों के अप्रभाग कफकारक द्रव्यों के सेवन से श्वित्र रोगी में श्यामता, पांवों में सूजन, तथा अनेक और पांड्डवर्ण होता है ॥ प्रकार के पथ्य अपथ्य खाने में स्पृहा ये मृद औषधों का सेवन । लक्षण व्यक्तगर्भ के होते हैं । कोई २ व्याधींश्चास्यामृदुसुखैरतीक्ष्णैरोषधैर्जयेत्। आचार्य कहते कि हैं देह में विदाह भी होता - अर्थ-गर्मिणी स्त्री को किसी प्रकार है । किसी पुस्तक में विदाहोम्ये की का रोग होने पर मृदु, सुरवपूर्वक सेवन के | जगह विदाहान्न । पाठ भी है, अर्थात योग्य और तीक्ष्णता हित औषध द्वारा | भोजन किये हुए अन्न में विदग्धता उसके रोग को दूर करने का उपाय करे । होती है । गर्भ के दूसरे मास के लक्षण । द्वितीये मासि कललाद्घनः पेश्यथवाऽर्बुदम् । गर्भणी के हिताहित पथ्य पुत्रीक्लीवा- क्रमात्तभ्यः का विचार । - तत्र व्यक्तस्य लक्षणम्। मातृजंघस्य हदयं मातुश्च हदयेन तत् । अर्थ-दसरे महिनेमें कलल रूप वाला | संबद्धं तेन गर्भिण्या नेष्टं श्रद्धाविधारणम् । गर्म धन, पेशी और अवंद के आकार का | देयमप्यहितं तस्यै हितोपहितमल्पकम् ॥ हो जाता है। इन्हीं धनादि रूप सेही गर्भ श्रद्धाविधाताद्गर्भस्य विकृतिश्च्युतिरेववा। क्रम से पुरुष, स्त्री या क्लीव होताहै अर्थात् अर्थ-क्योंकि इस गर्भ का हृदय जो धन ( गाढा ) होने से पुरुष, पेशी ( मांस चेतना का अधिपान है वह माता के अंश से की पेशीके समान लंबी ) होने से स्त्री और उत्पन्न होता है तथा गर्भ के उस हृदय अबुर्द ( अर्द्ध गोलाकार वस्तु के सदृश ) | का संबंध माता के हृदय से होता है, इस होने से नपुंसक होता है । लिये गर्भिणी के हृदय की ताप से गर्भका For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy