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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थान भाषाटीकासमत । (७५७) कलहारी, लहसन, मतीस, तुलसी, बच, । पैत्तिक उन्माद में उपाय । मालकांगनी, नागदंती, धमासा, हरड, मु. पैत्तिके तु प्रशस्यते ॥ ४४ ॥ छतानी मिट्टी, इन सब द्रव्यों को हाथी के तिक्तक जीवनीयं च सर्पिः स्नेहश्च मिश्रकः शिशिराण्यन्नपानानि मधुराणि लघूनि च मूत्र में पीसकर बत्ती बना लेवे और इस अर्थ-पित्तज उन्माद में तिक्तक और बत्ती को छाया में सुखाले । इस बत्ती जीवनीय घृत, मिश्रक स्नेह ( घी तेल आदि का नस्य, अंजन, प्रलेप और धूआं देने से मिलाये हुए स्नेह ) तथा ठंडे, मिष्ट, मधुर उन्मादरोग नष्ट हो जाता है। और हलके अन्नपान हित हैं। उन्माद में अवपीडन । उन्माद में सिराव्यध । अवधीसाच विविधाःसर्षपाः स्नेहसंयुताः। विध्येच्छिरां यथोक्तांवातृप्तं मेवामिषस्य वा कटुतलेन चाभ्यंगा ध्मापयेश्चास्य तद्रजः निवाते शाययेदेवं मुच्यते मतिविभ्रमात् सहिंगुस्तीक्ष्णधूमश्च सूत्रस्थानोदितो हितः।। अर्थ-उन्मादरोगी की सिराव्यर्धे में कही - अर्थ-सरसों के तेल से संयुक्त अनेक ही नसकी फस्द खोलै । ऐसे रोगी को पेट प्रकार के अवपीडन, सरसों के तेल का | भरकर मद्यमांस का भोजन कराके निर्वात अभ्यंग, सरसों के चूर्ण का प्रधमन, तथा स्थानमें शयन करावे । इन उपायों से रोगी सूत्रस्थान में कहा हुआ हींग मिलाकर तीक्ष्ण धूम | ये सब हितकारी हैं। अपनी बुद्धि की विभ्रांतिसे मुक्त होजाताहै। निर्जल कूपमें डालना। अन्य प्रयोग। प्रक्षिप्याऽसलिंले कूपे शोषयेद्वा बुभुक्षया । शूगालशल्यकोलूकजलूकावृषबस्तरः | आश्वासयेत्सुकृत्तं वा वाक्यैर्धर्मार्थसहितः मूत्रपित्तशकल्लोमनखचर्मभिराचरेत् । | ब्रयादिष्टविनाशं वा दर्शयेदद्भुतानि वा। धूपधूमांजनाभ्यंगप्रदेहपरिषेचनम् ॥४३॥ अर्थ-शृगाल, सेह, उल्लू, बिलाई, बैल वद्ध सर्षपतैलाक्तं न्यस्तं चोत्तानमातपे कपिकच्छ्वाथवातप्तैोहतैलजलैः स्पृशेत्। बकरा, इनके मूत्र, पित्त, मल, रोम, नख कशाभिस्ताडयित्वा वा बद्धं श्वभ्रे वितिः और चर्म द्वारा धूनी देना, धूमपान कराना, . क्षिपेत् ॥४९॥ अंजन लगाना, मर्दन करना, लेप करना मथवा वीतशस्त्राश्मअने संतमसे गृहे । सर्पणोद्धतदंष्टेण दांतैः सिंहगंजैश्च तम् तथा परिषेक करना उन्माद में हित है। । अथवा राजपुरुषा वहि त्वा सुसंयुतम् । अन्य धूनी। भापयेयुर्वधेनैनं तर्जयंतो नृपाशया ॥५॥ धूपयेत्सततं चैनं श्वगोमत्स्यैस्तु पूतिभिः । देहदुःखभयेभ्यो हि परं प्राणिभयं मतम् । वातश्लेष्मात्मक प्रायः॥ तेन याति शमं तस्य सर्वतो विप्लुतं मनः - अर्थ-कुत्ता, गौ और मछली इनके सडे | अर्थ-उन्माद रोगी को जमीन कूरमें हुए मांस की निरंतर धूनी देना उन्माद | डाल कर भूख से शोषित करावे अर्थात् खाने रोग में हित है । तथा बातकफात्मक उ- को न दे । तथा धर्मार्थ मिश्रित बातों से न्माद में तो विशेष रूप से हित है। । उसका भाश्वासन करै । भथवा किसी प्रिय For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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