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अ० १९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१६७)
अतितार, शूल, जीर्णज्वर, प्रतिश्याय, अर्थ- जो निरूहण के योग्य कहेगये वर्षविवन्ध, अधोवायु का रोध, मलग्रह, | हैं वही अनुवासन के योग्यहैं, किन्तु जो वर्धा, अश्मरी, रजोनाश तथा सब प्रकार | प्रबल जठराग्नियुक्त, रूक्ष और केवल, वातके दारुण वातरोग निरूहण बस्ति से अच्छे । पीडितहैं. वे विशेष रूपसे अनुबासनके योग्यहैं होते हैं । कषाय द्वारा वस्ति प्रयोग को | जो निरूहण के अयोग्य कहेगये हैं वेही मिरूहण और स्नह द्वारा बस्ति प्रयोग को | अनुशासन के अयोग्य हैं, उनके सिवाय अनुशासन कहते हैं।
पांडु, कामला, प्रमेह, पीनस, रोगबाले भी निरूहण वस्तिके अयोग्य रोगी ।। अनुवासन के योग्य नहीं है तथा जिसने अनास्थाप्यास्त्वतिस्निग्यःक्षतोरस्को भृशं- भोजन न किया हो, प्लीहा रोगी, जिसका
कृशः। मल फटगया हो, भारीकोष्ठवाला, कफोदर आमातिसारी वलिमार संशुद्धो दत्तनाचनः रोगी. अभिष्यन्दी, कार्य और स्थौल्य रोगों कासश्वासप्रेमहाऑहिमाऽऽध्मानालवल शूनपायुः कृताहारोबद्धच्छिद्रोपकोइरी॥५॥
से पीडित, जिभके कोष्ठ में कीडे हों, जो कुष्ठी च मधुमेही मासान् सन्त च गर्भिणी | आढयवात, अपची, श्लीपद, और गलगंड
अर्थ- अत्यन्त स्निग्ध, उरःक्षतरोगी रोगों से पीडित हो, जिसने जहर खायाहो । अत्यन्त कृश, आमातिसार रोगी, वमनवि- इतने रोगियों को अनुवासन वस्ति देना रेचनादि से शुद्ध हुआ रोगी, जिसको नस्य | उचित नहीं है । दीगई हो, तथा खांसी, श्वास, प्रमेह, अर्श, • निलह तथा अन्वासन यंत्र के लक्षण। हिक्का, आध्मान, मलक्षय, बद्धोदर, छिद्रो- तयोस्तु नेत्रं हेमादिधातुदावस्थिवेणुसम ॥
| गोगुच्छाकारमाच्छिद्रं श्लक्ष्णर्जु गुलिकामुखं दर, दकोदर, कुछ और मधुमेह रोगोंसे पीडि- |
अथ-जो यंत्र पिचकारी लगाने में का त रोगी, इसीतरह जिसकी गुदामें सूजनहो
म आता है उसे नेत्र कहते हैं, क्योंकि इजिसने भोजन करलियाहो, और सात मास
स यंत्रके द्वारा औषधी गुदामें पहुंचाई जाके गर्भवाली स्त्रीये सब आस्थापन वस्तिके
ती है । यह नेत्रनामक यंत्र सौना, चांदी, अयोग्यहै । निरूहण का दूसरा नाम आस्था
पीतल, लोहा, कांसा, कलई, सीसा, आदि पन भी है।
धातुओंका बनाया जाता है । अथवा शीशम अनुवासनके योग्यायोग्य रोगी। की लकडी से, वा हाथीदांत की हड्डी से आस्थाप्याएव चान्वास्था विशेषादतिवह्वयः वा बांससे बनाया जाता है । इसकी आरक्षा केवलवातार्ताःनाऽसुवास्यास्त एवच येऽऽनास्था वास्तथापांडुकामलामेहपीनसा'
कृति गौकी पूंछके सदृश होती है । इसमें, निरमप्लीहविभेदिगुरुकोष्ठकफोदराः।
छेद न रहने चाहिये, इस यंत्रका मुख कोअभिव्यदिशस्थूलकृमिकोष्ठाढयमारुताः॥ | मल, सीधा और गोलाकार बनवाबै । नोकपीते विषे गरेऽपच्यांश्लीपदी गलगंडवान् । । दार मुख होनेसे गुदा चुभनेकाडर रहता है ।
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