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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थान भाषाटीकासमेत । ५०५] - - कफज विद्रधि के लछण। क्षतोष्मा वायुविक्षिप्तः सरक्तं पित्तमीरयन् पांडुः कण्ड्युतः कफात् । पित्तामुग्लक्षणम् कुर्याद्विद्रधिं भूयुपद्रवम् । सोलेशशीतकस्तंभजभारोचकगौरवः ८ ॥ । अर्थ-शस्त्र लोष्ठ आदि की चोट लगने चिरोत्थानविदाहश्च से जो घाय होजाताहै वा अन्य किसी प्र__ अर्थ--कफजविद्रधिमें पांडुवर्णता, खुज कारके व्रण का घाव होजाताहै, और उस ली, उक्लेश, शीत, स्तंभ, जंभाई, अरोचक घावमें रोगी अपथ्य आहार विहार करतारहे और भारीपन होताहै । यह देर में उठतीहै तो घावकी गरमी वायुसे विक्षिप्त होकर और विशेष रूपसे विदाही है। रक्तसहित पित्तको प्रकुपित करदेती है, और - त्रिदोषज विद्रधि । | इससे अनेक उपद्रवों से युक्त विद्रधि हो सकीर्णः सन्निपाततः। जाती है , इसे क्षतज विद्रधि कहते हैं । इस अर्थ-त्रिदोषज विद्रधि में वातादि तीनों में रक्तज और पित्तज विद्रधि के मिले हुए दोषों के मिलेहुए लक्षण दिखाई देतेहैं। । लक्षण पाये जाते हैं। वाह्यांतर विद्रधिका विभाग । | विद्रधियों में उपद्रव विशेष । सामाच्चाऽत्रविमजेदाह्याभ्यंतर तेष्पद्रवभेदश्च स्मृतोऽधिष्ठानभेदतः १२ लक्षणाम् ॥९॥ नाभ्यां हिमा भवेद्वस्तौ मूत्रं कृच्छेण पूतिच अर्थ-पहिले कहेहुए दारुण और दारुण- श्वासो यकृतिरोधस्तु प्लाहयुच्छ्वासस्यतर लक्षणोंद्वारा वाह्य और आभ्यंतर विद्रधि तृट् पुनः ॥ १३ ॥ को पहिचान लेना चाहिये । गलग्रहश्च क्लोम्नि स्यात्सर्वांगप्रग्रहोहदि । प्रमोहस्तमकः कासोह्रदये घट्टनम् व्यथा ॥ रक्तज विद्रधिके लक्षण । कुक्षिपातरांसार्तिः कुक्षावाटोपजन्म च । कृष्णस्फोटावृतः श्याबस्तीबदाहरुजाज्वरः | सक्थ्नोग्रहो वंक्षणयोवृक्कयोः कटिपृष्ठयोः पित्तलिंगोऽसृजा बाह्यः स्त्रीणामेव- पार्श्वयोश्च व्यथा पायौ पवनस्य निरोधनम् तथांतरः ॥१०॥ अर्थ-रक्तज विद्रधि में विद्रधि का स्थान अर्थ-इन विद्रधियों में स्थान विशेष काले रंगके फोड़ोंसे घिरा रहताहै यह श्याव के अनुसार विशेष विशेष उपद्रव होतेहैं । वर्ण होतीहै, इसमें तीव्रदाह, वेदना और यथा जो विद्रधि नाभिमें होतीहै तो हिचकी ज्वर होता है तथा शेष लक्षण पित्तनाविद्रधि वस्ति में होनेसे मूत्रकी रुद्धता और दुर्गाध, के समान होते हैं। या वाडा विधि देवल यकृत में होनेसे श्वास , प्लीहा में होनेसे पुरुषों के होतीहै। तथा स्त्रियों के रक्तसे | श्वासरोध , क्लोम में होनेसे बार २ तां उत्पन्न हुई यह विद्रधि भीतर होतीहै, बाहर और गलग्रह , हृदय में होनेसे संपूर्ण अंग नहीं होती है। में जकडन, प्रमोह, तमक श्वास, खांसी .. क्षतजविद्रधि के लक्षण। हृदयघट्टन, और हृदय में वेदना., कुक्षिमें शस्त्राचैरभिघातेन क्षते वाऽपथ्यकारिणः।। होनेसे पसन्दियों के भीतर और कंधों में For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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