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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४०४] अष्टांगहृदय । अ०१६ अर्थ-अब हम यहांसे विद्रधि, बृद्धि पास होती है, यह दारुण और ऊंची ग्रंथि और गुल्मनिदान नामक अध्याय की ब्या- | होती है । दूसरी अंतर्विद्रधि बडी दारुण, ख्या करेंगे। गंभीर, गुल्म के समान कठोर, वल्मीक की विद्रधिके छः भेद । तरह ऊंची, अग्नि और शस्त्रकी तरह शीघ्र "भुक्तैः पर्युषितात्युष्णरूक्षशुष्कविदाहभिः | मारनेवाली होती है । जिलशय्याविचेष्टाभिस्तैस्तै चासक्प्रदूषणैः विद्रधि के स्थान । दुष्टं त्वइमांसदोस्थिस्रावासृक्कंडराश्रयः। यः शोफो बहिरंतर्वा महासूलो महारुजः २ | नाभिवस्तियकृष्ठीहलोमहृत्कुक्षिवंक्षणे ५ ॥ वृत्तः स्यादायतो या वा स्मृतः षोढा स-स्वादृक्कयोरपाने च विद्रधिः । ___ अर्थ-नाभि, वस्ति, यकृत प्लीहा, लोम दोषैः पृथक्समुदितैः शोणितेन क्षतेनच३॥ हृदय कुक्षि और वंक्षण, दोनों वृक्क और - अर्थ-बासी, अत्यन्त उष्ण, अत्यन्तरूक्ष अपान ये विद्रधि की उत्पत्ति के स्थान है। अत्यंत शुष्क और अत्यंत विदाही भोजन क वातज विद्रधिके लक्षण । रने से, अथवा'ऊंची नीची शय्यापर शयन - वातात्तत्राऽतितीव्ररुरु । करनेसे अथवा रक्तको दूषित करने- श्यावारुणचिरोत्थानपाकोविषमवाली अन्य क्रियाओं से त्वचा, मांस, भेद, संस्थितिः ॥ ६ ॥ अस्थि, स्नायु, रक्त और कंडराके आश्रित | व्यधच्छेदभ्रमानाहस्यंदसर्पणशब्दवान् । अर्थ-वातजविद्रधि में बडी तीन बेदना नाहर बाहर वा भीतर भीतर ऐसी सूजन पैदा होती है । जो बहुत स्थानमें फैली हुई होतीहै, इसका रंग श्याव, और अरुण होता होती है और वेदना भी इसमें बहुत होती है। है, यह बहुत देरमें उठतीहै और बहुत ही तथा यह सूजन गोल वा लंवी होती है, इ. देरमें पकती है । इसकी स्थिति भी विषम से विद्रधि कहते हैं । यह विद्रधि छः प्रका | है अर्थात कभी घटजातीहै और कभी बढ र की होती है, यथा- वातज, पित्तज, कफ जातीहै । इसमें व्यध और छेदके समान ज, त्रिदोष, रक्तज और क्षतज । शूल, भ्रम, आनाह, स्पंदन, परिसर्पण और छः प्रकारकी विद्रधिके दो भेद । बाह्योऽत्र तत्रतवांगे दारुणो प्रथितोन्नतः। वित्तन विद्रधिके लक्षण । आंतरो दारुणतरोगम्भीरोगुल्मवधनः ॥ रक्तताम्रासितःपित्तातृण्मोहज्वरदाहवान् ॥ वल्मीकवत्समुच्छ्रायी शीघ्रघात्यग्निशस्त्रवत् क्षिप्रोत्थानप्रपाकश्च___ अर्थ-छः प्रकारकी विद्रधि के दो भेद । अर्थ-पित्तजविद्रधि में तृषा, मोह, ज्वर है, अर्थात् एक बाहर होनेवाली वाह्यविद्रधि, | और दाह होताहै, यह लाल, ताम्रवर्ण और दूसरी भीतर होनेवाली अंतर्विद्रधि, वाह्यवि- | काली होतीहै, यह शीघ्र उठतीहै और शीघ्र द्रधि शरीर के बाहरके भागमें नाभिके ओर । ही पकजाती है । विद्रधिके दो भेद । । शब्द होताहै। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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