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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७२०) अष्टांगहृदय । में. ३ ___ अर्थ-दो शाणका एक बटक होताहै ।। सर्षप । आठ सर्षपका एक संडुल। दो तंडुल कोल, बदर और द्रंक्षण ये तीन बटक के | का एक धान । दो धानक' एक नौ । तीन पार्यायवाची शब्द हैं । दो द्रंक्षण अर्थात् । जो का एक कुच वा रत्ती । वारह रत्ती का दो बटिका का एक अक्ष होताहै । पिचु, १ माशा होताहै । भिन्न २ अाचार्य पांच छः पाणितल, सुवर्ण, कबलग्रह, कर्ष, विडाल- आठ, दश वा बारह रत्ती का माषा मानत पदक, तिंदुक और पाणिमानिका, ये आठ | हे, चार माशे का एक शाण होता है इससे शब्द अक्षके पर्यायवाची है । दो पिचुकी | आगे कर्ष, पल, कुडव, प्रस्थ, आढक, द्रोण एक शुक्ति होती है । शुक्ति और अष्टमिका । और वह उत्तरोत्तर चौगुने होते हैं। पलका दोनों पर्यायवाची शब्द है । दो शुक्तिका दसवां भाग धरण कहलाता है । मापका प. एक पल होताहै । प्रकुंच,विल्व, मुष्टि, आमू र्याय हेम, कर्षका षोडशिका, द्रोणका न और चतुर्थिका ये पलके पर्यायवाची शब्द ल्वण होता है दो द्रोण का एक शूर्प होता है । है । दो पलका एक प्रसृत होता है । दो शैलभेद से द्रव्य विशेष । प्रसतका एक अंजलि, दो अंजलिका एक हिमवदिव्यशैलाभ्यां प्रायो व्याप्ता वसुंधरा मानिका । आढक, भाजन और कंस ये | सौम्यं पथ्यं च तत्राद्यमाग्नेयं पैंध्यमौषधम् , आपस में पर्यायवाची शब्द हैं, इसी तरह अर्थ-वसुंधर। प्रायः हिमालय और वि. द्रोण, कुंभ, घट और अर्मण ये भी आपस | न्ध्याचल से व्याप्त है । हिमालय में उत्पन्न में पर्यायवाचक शब्द हैं । सौ पलकी एक | हुई सब औषधे सौम और पथ्य होती हैं । तुला और बीस तुला का एक भार होताहै | | तथा विन्ध्याचल पर उत्पन्न हुई औषधे यहां मान का परिमाण शाणसे आरं- आग्नेय होती हैं । ये गुणों में हिमालय की भ किया गयाहै, परन्तु शाण का परिमाण औषधों से न्यून होती है । कुछ भी नहीं बतलाया गया है, इसलिये किसी मानका भी परिमाण निश्चित नहीं इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां मथुरानिहोसकता है, अत एव इस विषय में जो सं- वासि श्रीकृष्णलालकृत भाषाटीकाग्रह में लिखा है उसे उद्धृत करते हैं । छः वितायां कल्पस्थाने भेषजकल्पो वशी की एक मरीची ! छः मरीच की एक नाम षष्ठोऽध्याय । समाप्तमिदं कल्पस्थानम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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