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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पस्थान भाषाटीकासमेत । .. अर्थ-स्नेहपाक तीन प्रकार का होता । सूखा द्रव्य न मिले तो उसकी जगह वही है, यथा---मंद, चिकण और खरचिक्कण। गीला द्रव्य दूना लेलेना चाहिये । यदि एक स्नेहपाकविधि- में करक के समान कोई वस्तु ही योगमें सूबे द्रव्य और द्रव अर्थात पतले उंगली से लगजाती है, कोई नहीं लगती द्रव्य तुल्य परिमाण में कहे गयेहों तो शुष्क है, उसे मंदपाक कहते हैं । जी द्रव्यकी अपेक्षा कुडयादि परिमाण में कहे हु. उंगली बहुत लगाने से उंगली के लगने लगे । एद्रय द्रव्य दने मिलाने चाहिये । वह चिक्कण है । जो थोडीही उंगली लगाने । अनुक्तद्रवमें पानीकी योजना। से विखर जाय और काला काला बत्ती के सदृश होजाय वह खरचिक्कण है। इससे पेषणालोडनेवारिस्नेहपाके च निद्रवे ॥२३ भागे की अवस्था दग्धपाक की होती है । अर्थ-पीसने और मिलाने के काम में यह दग्धपाक होने पर निरूपित कार्य नहीं | अथवा स्नेहपाक में यदि किसी पतले पदार्थ कर सकता है क्योंकि निर्वीय होजाता है । का वर्णन न किया गया हो तो जल मिलाआमपाक स्नेह अर्थात् कच्चापक्का स्नेह आग्नि | ना चाहिये । को मंदकर देता है । मंदपाक स्नेह नस्यकर्म । द्रव्यमें अनुक्तपरिमाण में कर्तव्य । में, अभ्यंग में खरचिक्कणपाक पीने वा कल्पयत्सदृशान्भागान्प्रमाणं यत्र मोदितम्। वस्तिकर्म में चिक्कणपाक उपयोग में लाया | कल्कीकुच्च भैषज्यमनिरूपितकल्पनम् । जाता है। ___ अर्थ-जिस जिस गोगमें द्रव्यों का परि. मानसंज्ञा। माण न दिया गया हो उन योगोंमें सब द्र. शाणं पाणितलं मुष्टिः कुडयं प्रस्थमाढकम्। | ब्यों का समान भाग ग्रहण करना चाहिये द्रोण पहंच क्रमशोधिजानीयाच्चतुर्गुणम्॥ और जहां औषध की स्वरसादि कल्पना न अर्थ-शाण, पाणितल, मुष्टि,कुडव,प्रस्थ, कही गई, हो वहां वहां कल्क बनाकर ही आढक, द्रोण और वह ये उत्तरोत्तर हर प्रयोग में लावै । एक से चौगुनी होती हैं । जैसे शाण से चौगुना पाणितल और पाणितल से चौगुना बटकादि संज्ञा । मुष्टि आदि आदि । द्वौ शाणौ वठकः कोलं बदर द्रक्षणश्च तो! गीलेसूखे द्रव्योंकी योजना।। | अक्षं पिचुःपाणितल सुवर्ण कवलग्राहः २५॥ द्विगुणं योजयेदाई कुडवादि तथा द्रवम् । फर्षो बिडालपदकं तिंदुकः पाणिमानिका । अर्थ-एक ही योग में सूखे और गीले शब्दान्यत्वमभिन्नेऽर्थे शुक्तिरष्टमिका पिचू दोनों प्रकार के द्रव्य तुल्य परिमाण में कहे पलं प्रकुंचो बिल्वं च मुष्टिरानं चतुर्थिका । द्वेपले प्रसृतस्तो द्वाजलिस्तोतु मानिका ॥ गयेहों तो सूखे द्रब्यकी अपेक्षा गीला ( हरा) माह भाजन कंसोद्रोण कुंभो घटोर्मणम् । द्रन्य दुना लेना चाहिये एकही योगमें यदि तुलापलशतम् तानि विशतिर्भार उच्यते ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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