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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ.३७ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (९४१) - - सफेद, श्याव, विचित्र, काले वा लाल , उष्ट्र घूमक विच्छू । देह के होते हैं, इनके देह रूक्ष, रोमयुक्त उच्चिर्टिगस्तु वक्त्रेण दशत्यभ्यधिकव्यथः बहुत से जोड वाले और पीले पेट वाले साध्यतोवृश्चिकात्स्तंभशेफसोहष्टरोमताम् करोति से कमंगानां दशः शीतांबुनेव च । होते हैं। उष्टधूमः स एवोक्तो रात्रिचाराच्च रात्रिका मध्यमविष बिच्छुओं के लक्षण । अर्थ--उच्चिटिंग नामका बिच्छू मुख धूम्रोदरास्त्रिपर्वाणो मध्यास्तु कपिलारुणाः से काटता है, इस में साध्य विच्छ की पिशंगाः शवलाश्चित्राःशोणितामा अपेक्षा अधिक व्यथा होती है, इससे लिंगे अर्थ-मध्य विषवाले बिच्छू धूम्रोदर, न्द्रिय में स्तब्धता और रोमहर्षण होता है । तीन जोडवाले, कपिल, अरुण वा पिंगल इसके दंशस्थान में शीतल जल का परिषेक वर्ण होते हैं, ये अनेक प्रकार के वर्षों से हित है । इस विच्छूका नाम उष्ट्रधूम है,यह चित्रित और रुधिर की रंगत के से होते हैं। रात्रि में निकलता है इससे इसे रात्रिक भी महाविष बिच्छूओं के लक्षण । | कहते हैं। महाविषाः। कीडों को दोषपरता। भान्यामा द्वयकपर्वाणो रक्तासितसितोदराः बातपित्तोसरा कीटाश्लैष्मिकाकणभोंदुराः अर्थ-महाविष वाले बिच्छू संपूर्ण अग्नि प्रायो वातोल्पणाविपा वृश्चिका सोष्टधूमका की आभा के सदृश, एक वा दो जोडवाले अर्थ-संपूर्ण कीडे वातपित्त की अधि होते हैं, इनके पेट रक्त, कृष्ण वा सफेद कता वाले होते हैं, इनमें से कर्णभ नामक चूहे कफकी अधिकतावाले और उष्ट्रधूम महाविष दष्ट लक्षण । नामक वृश्चिक वाताधिक्य विष वाले तैर्दष्टः शूनरसमः स्तब्धगात्री ज्वरादितः। होते हैं। खैर्वमन् शोणितं कृष्णमिंद्रियार्थामसंविदन् ___ दोषानुसार चिकित्सा ॥ स्विद्यन्मूर्छन् विशुष्कास्यो विह्वलोवेदनातुरः विशीयमाणमांसश्च प्रायशो विजहात्यसून् । यस्पर यस्य तस्यैव दोषस्य लिंगाधिक्यं प्रतयेतू अर्थ-इन महाविषवाले बिच्छुओं के डंक तस्य तस्यौषधैः कुर्याद्विपरीतगुणैः क्रियाम् ___ अर्थ-जिस जिस दोष की अधिकता मारने पर जाम में सूजन, गात्रमें स्तब्धता के लक्षण दिखाई दें, उस उसकी चिकित्सा ज्वर, मुख नस्यादि द्वारा काले रंग के उन उनके विपरीत लक्षणवाली औषधों से रुधिर की वमन, इन्द्रियों की रूपरसादि करनी चाहिये। विषयों के ग्रहण में असामर्थ्य, स्वेद, मूर्छा वातिक विष के लक्षण ॥ मुख में सूखापन, विह्वलता, वेदना, मांस हत्पीडोर्धानिलस्तंभः शिरायामोस्थिपर्वक में विशीर्णता, ये लक्षण उपस्थित होते हैं। घर्णनोद्वेष्टनं गानश्यावता वातिके विषे १७ और प्रायः रोगी मर भी जाता है। अर्थ-वातिक विषमें हृदय में पीडा, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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