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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२) अष्टांगहृदये । अभिलाषा छोडदी हो । (५) अमर्मगः ] व्याधियां सुखपूर्वक चिकित्सा के योग्य । हैं ( जिसका रोग सिर हृदय वस्ति आदि मर्म | कृच्छ्रसाध्य व्याधि । स्थानों में न पहुंचाहो ) । (६) अल्प हे- शस्त्रादिसाधनः कृच्छ्रः सङ्करे चततोगदः३१ त्वम रूप रूपः (जिस व्याधि में निदान, अर्थ-जो रोग शस्त्रादि से अच्छा हानेके पूर्वरूप और लक्षण थोड़े और कम उपद्रव योग्य हैं वह कृसाध्य होतेहैं । शस्त्रादि करने वालेहों) (७) अनुपद्रव (जिस व्या- साधन से चारने फाडने का प्रयोजनह इसे धि में कोई उपद्रव न हुआहो, एक रोग में / अंगरेजी में ऑपेरशन(Operation)कहतहैं। दूसरे रोगका खडा होजाना उपद्रव कहलाता जो रोग कठिन और बड़े बड़े उपायों से है कहाभी है व्या वेरुपरि यो व्याधिर्भव- बहुत काल में अच्छे हातहैं वे कृच्छ्रसाध्य त्युत्तरकालजः । उपक्रम विघातीच सा कहलाते हैं । मूल में जो आदि शब्द दिया पद्रव उच्यते ) (८) अतुल्य दूष्यदेशतु प्र- गया है उससे क्षारकर्म, अग्नि कर्म और कृतिः * (जिसकी दूष्य, देश, ऋतु और विपलेपादिका ग्रहण हैं अर्थात् जिन रोगों में प्रकृति समान नहीं ) (९) पादसंपदि ( जहां क्षारकर्म ( तेजाब लगाना अर्थात् Caustic चार चार गुण वाले वैद्य औषध, परिचारक ( कास्टिक ) का प्रयोग कियाजाता है, अ. और रोगीहों) । (१०) ग्रहेष्वनुगुणेषु ग्निकर्म गर्म लोहशलाका आदिसे दग्ध (सूर्यादिक ग्रहोंका अनुकूल होना ) (११) करना ) और विषलेपादिका प्रयोग किया एक दोष मार्गः ( जो व्याधि वातादिक तीन माताहै वे भी कृच्छ्साध्य होते हैं । इसी दोषोंमेंसे किसी एक दोषके कारण शास्त्रोक्त तरह पूर्वोक्त साध्य लक्षणों की संकीर्णता वाह्य, अभ्यंतर और मध्य मामी में से एक (अल्पता ) वा विपर्यय होनेपर भी रोग कृमागे द्वारा उत्पन्न होतीहै ) १२) नवः ( जो । च्छ्रसाध्य होताहै । इसी तरह रागी युवाहो वहुत दिनकी पुरानी न हुई हो ) ये सव पर मनको वश में न रख सकताहो अथवा ___ * इस विषय में हम सर्वांग सुन्दरा टीका के वाक्य उद्धृत करते हैं:-“यथा दूप्ये मेंदोमज्जादावनूपदेशे शीतर्तावातुरो वातप्रकृतिस्तस्य कुपितं पित्तं सुखसाध्यमिति । अतुल्यदूप्यो यथा श्लेष्मणाशीतेन रक्तमुष्णं दूषितं । अतुल्य देशो व्याधिर्यथा । अनूपदेशे पित्तसंभूतं । अतुल्यर्तुयथा । शरदि कफोद्भवः । अतुल्य प्रकृतिर्यथा पित्त प्रकृतेः श्लेष्मोद्भवो व्याधिः । नन्वतुल्य दूप्यदेशर्तुप्रकृतित्वादसौ कृच्छ्रसाध्यो यथा वा प्राप्तो न सुखसाध्योऽनेकसुखोपक्रमसाध्यत्वात् । यतो दूष्यादीनामतुल्यत्वात्प रस्परमन्य एवोपक्रमः । एक सुखोपक्रमः सुखसाध्यो व्याधिः अतएव साध्ययाप्य परित्याज्या मेहाः श्लेष्म पित्त वातोत्थाः समासमक्रियतया महात्ययबत्तयापि चेत्येवं निर्दिशति । अत्रोच्यते । तथा प्रभावत्वात्प्रमेहास्यस्य व्याधेर्यदुत श्लेष्म प्रमेहः समक्रियत्वात्साध्यः । पित्त प्रमेहो विषमक्रियत्वाद्यान्यः । महात्ययत्वाञ्च वातप्रमेहः प्रत्याख्येयः । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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