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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । मनको बशमें रखभी सकताहो पर रोग मर्म त्याज्य रोगी के लक्षण । स्थानमें होय तोभी रोग कच्छ्रसाध्यहोताहै। । त्यजेदात भिषग्भूपैर्दिष्टं तेषां द्विषं द्विषम्३३ 'याप्प व्याधि। हीनोपकरणं व्यग्रमविधेयं गतायुषम् । चण्डं शोकातुरंभीरुं कृतघ्नं वैद्यमानिनम्३४ शेषत्वादायुषो यान्यः पथ्याभ्यासाद्विपर्यये अर्थ-वैद्य और राजा जिससे द्वेष करते अर्थ-जो रोगी की आयु शेषहो और हैं, धा जो बैद्य और राजा से द्वेष करता हो, वह निरन्तर पथ्यसेवन अर्थात् हितकारी आ जो आपही अपना शत्रु हो, जो चिकित्साके हार विहार करताहै तो साध्यलक्षणों से विरु योग्य उपकरणों से हीन हो जिसका चित्त द्ध लक्षण वाला रोगभी याप्य होजाता है। वहुत से कार्यों में लगा हो, जो वैद्यकी प्रत्याक्षेय व्याधि। आज्ञाका पालन न करता हो, जिसकी जीअनुपक्रम एव स्यात् स्थितोऽत्यन्तविपर्यये३२ औत्सुक्यमोहारतिकदृष्टरिष्टोक्षनाशनः। वन शक्ति क्षीण हो गई हो, इसी तरह ___ अर्थ-ऊपर कहे हुए याप्य लक्षणों के अ क्रूर कर्म करने वाला, शोकातुर, डरपोक, त्यन्त विपर्यायहोने से अर्थात् आयुके शेष न । कृतघ्न ( उपकार को न माननेवाला), रहने पर, हितकारी आहार विहारादिके निय- और वैद्याभिमानी चिकित्सा शास्त्रको न मोंकी रक्षा न करने पर और मज्जा शुक्रादि जानकर भी अपने को वैद्य मानने वाला)। गंभीर धातुओंमें रोगके पहुंचने पर अथवा म- ऐसे रोगियों की चिकित्सा करना कदापि मस्थान रोगके होने पर व्याधि आचकित्स्य उचित नहीं है । होजाती है । इसी तरह औत्सुक्य ( गर्वादि अध्यायों का अनुक्रम | विषयोंत्कंठा ), मोह ( चित्तकी अस्थिरता ) तन्त्रस्यास्य परश्चातो वक्ष्यतेऽध्यायसंग्रहः । ____ अर्थ-अब हम इस तंत्र के अध्यायों का और अरति ( उठने बैठने आदिमें चैन न संग्रह अर्थात् उनके नाम लिखते हैं । पडना ) पैदाकरने वाली व्याधि भी अचिकि सूत्रस्थान के नाम । स्य होती है । तथा जिसरागमें रिष्ट अर्थात् आयुष्कामदिन-हारोगानुत्पादनद्रवाः ३५ मरणसूचक चिन्ह दिखाई देतेहों अथवा | अन्नशानान्नसंरक्षामात्राद्रव्यरसाश्रयाः । जिसरोगके होतेही आंख कान नाक आदि दोषादिज्ञानतद्भदतचिकित्साद्युपक्रमः॥३६ इन्द्रियोंका नाश होगयाहो, ये सब रोग असा शुद्ध्यादिस्नेहनस्वेदरेकास्थापननावनम् । धूमगण्डूषडक्सेकतृप्तियन्त्रकशस्त्रकम् ।३७। ध्य होते हैं इन रोगों की अच्छी तरह परीक्षा शिराविधिःशल्यविधिःशस्त्रक्षाराग्निकर्मका: करके चिकित्सा करना आरंभकरै, ऐसा न सूत्रस्थान इमेऽध्यायास्त्रिंशत् शारीरमुच्यते करने से वैद्यके स्वार्थ और यश की हानिहो (१) आयुष्कामीय २ दिनचर्या ३ तीहै कहाभी है " व्याधि पुरा परीक्ष्यैव मार ऋतुचर्या ४ रोगानुत्पादनीय ५ द्रवद्रव्यविज्ञाभेत ततः क्रियाम् । स्वार्थविद्यायशोहानि. | नीय ६ अन्नस्वरूपविज्ञानीय ७ अन्नरक्षा मन्यथा ध्रुवमाप्नुयात्" | . ८ मात्राशितीय ९ द्रव्यादिविज्ञानीय १. For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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