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म. १८
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत
की शुद्धि पहिले करली गई हो, जो अल्प । शान्निईत्यवाकिंचित्तीक्ष्णाभिःफलवर्तिमि दोषयुक्त हो. कृश हो, जिसके कोष्ठका हा- प्रवृत्तं हि मलं स्निग्धो विरेको निर्हरेत्सुसम् ।। ल मालूम न हो, ऐसे रोगी को मृवीर्य अर्थ-जो मनुष्य रूक्ष, अधिक वातयुक्त और स्वल्प परिमाण में बार बार विरेचन दे |
करकोष्ठ, कसरत करनेवाला, और दीप्तामा अच्छा है, एक बार ही में तीक्ष्ण वीर्य
ग्निवाला हो तो जो विरेचन औषध उस
को दी जाती है वह विरेचन कराये बिना का प्राणनाशक होजाता है । इस लिये बार
। ही स्वयं पच जाती है । इस लिये ऐसे बार थोडी थोडी औषध देनेसे बहुत दोषभी मनुष्या का वास्त
मनुष्यों को वस्ति अथवा तीक्ष्ण फल वर्ति थोडा थोडा करक बाहर निकल जाता है । | के प्रयोग द्वारा थोडा मलनिकाल डाले, फिर ऐसा करने से बलकी तो हानि नहीं होती। एरंड तेल और विन्दु घृता दे स्निग्ध विरेचन और विरेचनक्रिया सिद्ध होजाती है। देवै, इसका कारण यह है कि थोडा सा दुर्बल के अल्पदोषकी चिकित्सा । मल निकल जाने पर स्निग्ध विरेचन द्वारा दुर्बलस्यमृदुद्रव्यैरल्यान् संशमयेत्तु तान् ॥ |
| सहज ही में मल निकल जाता है । क्लेशयति चिरते हि हन्यनमनिहताः। विषपीडित व्यक्ति का विरेचन । ___ अर्थ-दुर्बल मनुष्य के स्वल्पदोष को विषाभिघातपिठिकाकुष्ठशोकविसर्पिणः। मृदु वीर्य औषध द्वारा शमन करै । क्योंकि कामलापांडुमेहान्निातिस्निग्धान् विरेचयेत् जो दोष शमन न हो सके तो बहुत काल
___अर्थ विष, अभिघात ( चोट ),पिटका पर्यन्त कष्ट देते हैं और न निकलें तो
कुट, शोक, विसर्प, कामला, पांडुरोग, और रोगी का प्राणनाश कर देते हैं।
प्रमेह रोगग्रस्त मनुष्य को थोड़ा स्निग्ध क
रके पीछे विरेचन देवै । मन्दाग्नि और क्रूरकोष्टका शोधन । मंदाग्निं क्रूरकोष्ठ च सक्षारलवणेघृतैः ५॥
विरेचन का प्रकार । संधुक्षिताग्निं विजितकफवातंच शोधयेत। सर्वान् स्नेहविरेकैश्च सर्वैस्तु स्नेहभावितान् अर्थ-मन्दाग्नि और क्रूरकोष्ठ वाले रो
____ अर्थ- ऊपर कहे हुए विषादि पीडित गों को क्षार, लवण और घृत द्वारा संशो
रोगियों को जो स्निग्ध हो चुके हैं स्नेहन धित करै । ऐसा करने से इसकी भी आग्नि | विरेचन देकर शुद्ध करै परन्तु जिसको स्नेह प्रदीप्त हो जाती है और कफ वात जाते पान कराके स्निग्ध किया है उनको रूक्ष, रहते हैं।
विरेचन देना चाहिये। ___ रूक्षादि का विरेचन । - स्नेहादि का बार बार प्रयोग । सक्षबवनिलकूरकोष्ठव्यायामशीलिनाम् ५३ कर्मणां बमनादीनां पुनरप्यंतरेऽतरे ॥५७॥ दीप्तानीनां च भैषज्यमविरेच्यैवीर्यति। नेहस्वेदी प्रयुजीत नेहमले बलाय च । वेभ्यो वस्ति पुरा दद्यात्ततः स्निग्धं विरेचनम् । अर्थ-वमनादि कर्म जिस रोगी को
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