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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदये। अ०१८ यात्यानर्मदतां तस्मात्क्रम पेयादिमाचरेत् ॥ | काल देती है. विरेचन औषध पचते समय ...अर्थ-संशोधन, रक्तमाक्षण ( फस्द | दोषको वाहर निकालती है, इस लिये वमद्वारा रुधिर निकालना ) स्नेह प्रयोग और न औषधके पचने की प्रतीक्षा न करै । लंघन द्वारा जठराग्नि मंद पड जाती है इस वमनविरेचनकी विरुद्धताकर्तव्य । लिये पूर्वकथित पेयादि क्रमका सेवन उचित ऊर्ध्वाऽधोरेचनं युक्तं वैपरीत्येन जायते। है। [ आगे कहागया है कि संशोधन से यदा तदा च्छर्दयतःसिंचे दुष्णेनवारिणा। आनि प्रदीप्त होती है और इस जगह संशोधन | पादौ शीतेन चोर्दागं विपरीतं विरेचने । से अग्नि का मंद होना कहा गया है, इस अर्थ-वमन और विरेचन औषध मिथ्या कहने से परस्पर विरोध आता दस शंका | योगसे युक्त होकर विपरीत काम करतो नी का यह समाधान है कि संशोधन से जो चे लिखी हुई विधिका अबलंबन करना चा अग्नि मंद पडती है वह कालभेद से पडती । हिये अर्थात् बमनका रस औषध द्वारा यदि है सदा मंद नहीं पडती है इसलिये जब विरेचन होतो रोगी के दोनों पांवों पर गरम कालभेद से सशोधन द्वारा अग्नि मंद पडे | जल और मस्तक पर ठंडा जल डाले. और उस समय पेयादि क्रम का उपयोग कहा यदि विरेचक औषधद्वारा वमन होतो दोनों गया हैं। पांवोंपर शीतलजल और सिरपर गरमजल ... पेयादिक्रमके अयोग्यरोगी।। का सेचन ( तरेडा ) करे ( यह श्लोक प्रक्षि ताल्पपित्तश्लेष्माणं मद्यपं वातपौत्तकम्॥ प्त प्रतीत होता है क्योंकि सर्वांगसुन्दरा टीपेयां न पाययेत्तेषांतर्पणादिक्रमोहितः। | का में अरुणदत्त ने इस का उल्लेख का म अरुणदत्त न इस अर्थ-जिस रोगीका पित और कफ थो नहीं किया है । डा बाहर निकला हो, जो मद्य पीता है । | स्वतः विरेचनका उपचार । जो बात और पित्तसे ग्रस्त है । ऐसे रोगि दुर्बलो बहुदोषश्च दोषपाकेन यः स्वयम् ४८ योंको पेयादिपान कराना अहित है, इन के विरिच्यते भेदनीयैर्भोज्यैस्तमुपपादयेत् । लिये प्रथम भोजनकाल में लाजासक्तु, द्विती ___अर्थ-दुर्बल आर बहुत दोषोंसे युक्त गे | गीको यदि दोष के परिपाक के निमित्त अय भोजनकाल में मांसरस जल के साथ देवै एने आप दस्त होने लगे तो उसको विरेचन इस तरह तर्पणादि क्रम का सेवन हि न देकर भेदनीय भक्ष्यपदार्थीका सेवनकरावे तकारक है। | दुर्बल की औषध । औषधके पचनेकी अनावश्यकता। लः शोधितः पूर्वमल्पदोषः कृशो नरः४९ अपक्वं वमनं दोषान् पच्यमानं विरेचनम् ॥ अपरिज्ञातकोष्टश्च पिवेन्मृद्वल्पमौषधम् । निहरेद्वमनस्याऽतः पाकंन प्रतिपालयेत्। वरं तदसकृत्पीतमन्यथासंशयावहम् ५० ॥ __ अर्थ-बमन औषध अपक अवस्था ही हरेदहूंश्चलान्दोषानल्पाऽनल्पान् पुनःपुनः। में अर्थात् न पचने परभी दोषको बाहर नि अर्थ-जो रोगी दुर्बल हो, जिसके दोष For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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