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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०१८ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत। विरेचवका अयोगायोग लक्षण । | आंख भीतर को गढ जाती है, तथा वमन हत्कुत्यशुधिररुचिरुत्क्लेशः लेप्मपित्तयोः के अतियोग होने से जो कृशता भादि कर्विदाहः पिटिका पीनसो वातविइप्रहः। व्याधियां होजाती हैं वे भी इसमें उत्पन्न अयोगलक्षणम् . बोगो वैपरीत्ये यथोदितात् ॥३९ होती हैं। अर्थ-विरेचन के अच्छी तरह न होने । बिरेचन के पीछे का उपचार। का नाम विरेचन का अयोग है । विरेचन | सम्यग्विारक्तमनं च वमनोक्तेन योजयेत् ४२ धूमवयन विधिना ततो वमितबानिव । का अयोग होनेसे हृदय और कूखकी शुद्धि क्रमेणाऽनानि जानो भजेत्प्रकृतिभोजनम्॥ नहीं होती है, अरुचि उत्पन्न होजाती है, । अर्थ-सम्यक् विरेचन होने पर केबल कफ और पित्त अपने स्थानको छोडकर | धूमपान को छोडकर और जो जो विधि सम्यक अन्य स्थानमें जाने को उन्मुख होते हैं । | वमन होने के पीछे कहीं गई हैं उन सब को खुजली, विदाह, पिटका, पीनस, मल और करे, फिर उसी रीति से पेयाविलेपी आदि अधोवायु की अप्रवृत्ति, आदि लक्षण होते । क्रमशः सेबन करता हुआ कुछ दिन पीछे हैं। तथा ऊपर कहे हुए लक्षणों से विपरीत प्रकृति भोजन करने लगे। लक्षण होने पर अर्थात् "हृदय और कुक्षि औषध सेवनान्तर उपवासादि । की शुद्धि आदि" बिरेचन का सम्यक योग । मंदवह्निमसंशुद्धमक्षामं दोपदुर्वलम् । अजीर्णलिंगंच लंघयेत्पीतभेषजम् ४४॥ समझना चाहिये। विरेचनके अतियोग का लक्षण । | स्नेहस्वेदौषधोत्क्लेशसंगैरितिन बाध्यते । विपित्तकफवातेषु निःसृतेबु क्रमानवेत्। ___ अर्थ-पीतभेषज (जिनने दवा पीलीहो) निःश्लेष्मात्तिमुदकं श्वेतं कृष्णं सलोहितं । पांच प्रकारके आगे लिख रेगियों को लंघन मांसधावनतुल्यं वा भेद जडाभमेव वा। कराना चाहिये, वे ये हैं ( १ ) जिसकी मुदनिःसरणं तृष्णा भ्रमो नेत्रप्रवेशनम् ॥ जठणानि मंद हो, (२) जिसका देह कृश भवत्यतिविरिकस्य तथाऽतिवमनामयाः। न हुआ हो (३) जिसके वातादि दोष दुर्वल ' अर्थ-अत्यन्त दस्त होजाने का नाम होगये हों, (४) जिसकी विरेचनद्वारा शुद्धि विरेचन का अतियोग है इसमें मल, पित्त, न हुई हो (५) पीहुई औषधके पचने के कफ, वायु आदि के निकलजाने के पीछे लक्षण दिखाई न देते हो। इसका कारण कफरहित पित्तका पानी निकलता है । कभी यह है कि लंघन कराने से पीया हुआ स्नेह . कभी पानी का रंग सफेद, काला वा लोहित निकाला हुआ पसीना और औषध इन वर्ण होता है, कभी कभी मांसके धोयेहुए तीनों का उत्क्लेश ( वहिर्गमनोन्मुखता ) पानी के सदृश रंग होता है अथवा मंद के और विवद्धता कछ हानि नहीं पहुंचाते हैं। टकडों के जलयत् होता है, गुदा बाहर संशोधन के पीछे पेयादि । निकल आती है, तृषा और भ्रम होजाताहै, संशोधनाऽत्रविक्षाक्नेहयोजनलधनैः ४५ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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