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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (२४६ ) www. kobatirth.org अष्टांगहृदये । पूर्वोक्त क्षारजल में जले हुए मुधाशर्करे । दि बुझाये जाते हैं, इनको पीसकर प्रतीवाप नहीं किया जाता है । तीक्ष्णक्षर बनाने की यह विधि है कि पूर्वोक्त रीति से मध्यमक्षार की रीति से जब सब काम: तयार होजाय अर्थात् निर्वाण और प्रतीवाप हो चुके तब लांगली, दंती, चीता, अतीस, बच, सज्जीखार, स्वर्णक्षीरी, हींग, पूतीकरंज, पल्लव, तालपत्री और विनमक इन सब द्रव्यों को पूर्ववत पीस कर उक्त द्रव पदार्थ में प्रतीवाप करे । यह क्षार तयार होने के सात दिन पीछे उपयोग में लाने के योग्य होता है । क्षार के गुण । नातितfक्ष्णो मृदुः श्लक्ष्णः पिच्छिलः शीघ्रगः सितः । शिखरी सुखनिर्वादयो न विष्यंदी न चातिरुकू क्षारो दशगुणः शस्त्रतेजसोरपि कर्मकृत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३० अर्थ - क्षारमें ये दस गुण हैं यथा:नअति तीक्ष्ण, न अति मुदु, श्लक्ष्ण, पिच्छिल, शीघ्रग ( शरीर में शीघ्र प्रवेश करने वाला ], शुक्ल, शिखरी, सुखनिर्वाप्य [ कां जी आदि में डालकर सुखपूर्वक ठंडा करने के योग्य ], अविष्यन्दी ( झरनेके अयोग्य) न अति रुक् ( अति वेदनारहित ) । शस्त्र और अग्नि से छेदन पाटन लेखनादि तथा दाहनादि जो कर्म कियेजाते है वेही क्षारसे भी किये जाते हैं । अंतरानुभवद्वार से क्षार के गुण । आचूषन्निव संरंभाद्गात्रमापीडयन्निव ॥ २५ ॥ सर्वतोऽनुसरन् दोषानुन्मूलयति मूलतः । कर्म कृत्वा गतरुजः स्वयमेवोपशाम्यति ॥ ३६ ॥ अर्थ - भीतर योजना कियाहुआ क्षार उक्त क्षारों का प्रयोग | तीक्ष्णेऽनिलश्लेष्ममेदो जो वर्बुदादिषु ॥ २२॥ संक्षोभसे शरीर को घूसता और मर्दन करमध्येष्वेव च मध्यः अन्यः पित्तास्रग्गुदजन्मसु । बलार्थ क्षीणपानीये क्षारांबु पुनरावपेत् ॥ अर्थ - तीक्ष्णक्षार वातकफ से उत्पन्न हुए तथा मेद से उत्पन्न हुए अर्बुदादि रोगों में प्रयुक्त होता है, मध्यक्षार मध्यम प्रकार के अर्बुदादि रोगों में तथा मृदुक्षार रक्तज और पित्तज अरोरोग में प्रयुक्त होता है । ता हुआ चारों ओर है और शस्त्रसा घूमता ध्यदोषों को जडसे उखाड़कर फेंक देता है, तथा अपने दाहादिक कर्मों को करके गतरुज पुरुष के देह में विनायत्न किये आपही शांत होजाता है । जो क्षार पदार्थ के क्षीण होने पर गाढा होजाय तो उसमें तेजी उत्पन्न करने के लिये क्षारविधि से तयार किया हुआ क्षार जल मिला देना चाहिये । क्षार प्रयोग की विधि | क्षारसाध्ये गदे छिन्ने लिखितेऽस्रावितेऽथवा क्षारं शलाकया दत्त्वाप्लोतप्रावृतदेहया ॥२७॥ मात्राशतमुपेक्षेत हस्तेन यंत्रं कुर्वीत For Private And Personal Use Only तत्रार्शः स्वावृताननम् । वर्त्मरोगेषु वर्त्मनी ॥ २८ ॥ निर्भुज्य पिचुनाच्छाद्य कृष्णभागं विनिक्षिपेत् पद्मपत्रतनुः क्षारलेपो घ्राणार्बुदेषु च ॥ २९ ॥ अर्थ - क्षारसाध्य अर्श और अर्बुदादि व्याधिओं में क्षारका प्रयोग करना हो तो उनको शस्त्र से छेदनकरके, खुरचके अथवा
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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