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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ३. सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (२४७) स्रावित करके एक सलाई की नौकको रुई । विलकुल दूर करदे और क्षारसे सम्यक दग्ध के फोए सें लपेटकर उससे उस पर क्षार | के लक्षण दिखाई देने पर क्षार लगे हुए लगादेवे, क्षार लगाने के पीछे शतमात्रा का- स्थान पर घी और शहत का लेप करे, लतक अर्थात, सौ गिनने में जितना काल फिर जल, दहीका तोड, और कांजी द्वारा लगे तबतक अपेक्षाकरे, शीघ्रही कांजी आ- उस स्थानको ठंडा करके स्वादु और शति दि डालकर ठंडा करने की चेष्टा न करे। | वीर्य द्रव्यों को घृतमें सानकर लेप करे। _ अर्श रोग में क्षारका प्रयोग करने में क्षारकर्ममें भोजनादि । । । पूर्ववत् शलाका से क्षार लगावै और शत- | अभिष्यदीनि भोज्यानि भोज्यानिक्लेदनायच मात्रा काल तक अपेक्षा करे और हाथ से अर्थ-क्षारसे दग्ध स्थानमें क्लेदता उत्पयंत्रके मुखको आच्छादित करले। न्न करने के लिये रोगीको दही मछली आदि, वर्मरोग में हाथ से पलकों को टेढा | अभिष्यंदी भोजन खानेको दे । क्योंकि क्षार करके आंखको पुतली के काले भाग को | दग्ध स्थान क्लिन्न होने से शीघ्र शीर्णता रुई से ढककर क्षारका प्रयोग करना चाहिये | को प्राप्त होता है । . नासार्बुद रोगमें क्षारका प्रयोग करने के क्षारदग्धस्थानपरलेप । समय रोगी को सूर्य की ओर मुख करके यदि च स्थिरमूलत्वात्क्षारदग्धं न शीर्यते । धान्याम्लबीजयष्ठयाहूतिलैरालेपयेत्ततः३३॥ बैठा देवे और उसकी नासिका का अग्रभाग ___अर्थ-जो क्षार दग्ध स्थानकी जड दृढ ऊंचा करके कमल के पत्ते के तुल्य पतला होगई हो और इसलिये अभिष्यंदी भोजनादि लेप करें तथा पचास मात्रा काल तक से भी उसमें शीर्णता उत्पन्न नहो तोधान्या. अपेक्षा करे । ल्म का वीज, मुलहटी और तिल का लेप कर्णज अर्श में नासार्बुद की तरह कमल लगाना चाहिये। पत्र के समान पतला लेप दे पचास मात्रा व्रणरोपण तिलकल्क । काल तक अपेक्षा करे । तिलकल्कःसमधुको घृताक्तो व्रणरोपणः । क्षारकेमार्जनकी विधि। ____अर्थ-क्षारसे जला हुआ घाव तिलका प्रत्यादित्यं निषण्णस्य समुन्नम्याग्रनासिकाम् । कल्क शहतमें मिलाकर लेप करनेसे अच्छा मात्रा विधार्यःपंचाशत् होजाता है। तद्वदर्शास कर्णजे ॥ ३०॥ सम्यक दग्धादिके लक्षण । .. क्षारंप्रमार्जनेनानु परिमृज्याऽवगम्य च। । पक्कजंबसितं सन्नं सम्यग्दग्धम् सुदग्धं घृतमध्वातंतत्पयोमस्तुकांजिकै॥३१॥ विपर्यये ॥ ३४॥ निर्वापयेत्ततः साज्यैःस्वादुशीतैः प्रदेहयेत् । | ताम्रतातोदकंड्वाधैर्दुर्दग्धम् अर्थ-क्षार लगाने का नियमित समय तं पुनर्दहेत्। व्यतीत होजाने पर वस्त्रादि से उस लेपको | अतिदग्धे स्रवेद्रक्तं मू दाहज्वरादयः ।६५। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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