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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पस्थान भाषाकासेभत । अतिपीडित वस्तिपुटक । । शुद्ध रोगीको उसकी प्रकृति अर्थात् स्वाभापतिप्रपीडितः कोष्ठे तिष्ठत्यायाति वा विक दशा पर लावै । जैसे पहिले मधुररसका गलम्।। प्रयोग करके फिर उसके प्रतिपक्षी अम्लादि तत्र पस्तिर्विरेकश्व गलपीडादि कर्म च ५० . अर्थ-वस्तिपुटके के अत्यन्त प्रपीडित हो | किसी रसका प्रयोग करे, अम्ल द्रव्यका प्रने पर औषध कोष्ठमें जाकर ठहर जाती है. योग करके मधुरादिद्रव्यों में से किसी का प्र. वा गले तक आजाती है, ऐसी अवस्था में , योग कर, इसी तरह स्निग्ध वा रूक्ष का प्रवस्ति, विरेचन वा गलपीडन आदि चिकित्सा योग करके वमनादि से शुद्ध रोगीको जैसे काममें लानी चाहिये । हो वैसे प्रकृति पर लावै । वमनादि में रक्षा। प्रकृतिगत के लक्षण ।। घमनायैर्विशुद्धं च क्षामदेहबलानलम् । सर्वसहः स्थिरबलो विशेयः प्रकृतिं गतः ५४ यथांडं तरुणं पूर्ण तैलपात्रं यथा तथा ५१ । अर्थ-वमनादि से शुद्ध रोगी जब सब भिषक् प्रयत्मतो रक्षेत्सर्वस्मादपवादतः। बातों को सहने लगजाय और उसमें शारीरक अर्थ-जैसे नवीन अंडेकी और तेल से बल दृढ हो जाय, तब जानना चाहिये कि भरे हुए पात्रकी रक्षा की जाती है,इसी तरह उस मनुष्य की बडी सावधानी से रक्षा की रोगी अपनी प्रकृति पर आगया है । जाती है जो वमनविरेचनादि द्वारा शुद्ध होने इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाठीके कारण क्षीण बल और क्षीण अग्निवाला कान्विताय कल्पस्थाने वस्तिव्यापहो जाता है। सिद्धिनीम पंचमोऽध्यायः । उक्तदशामें चिकित्सा। दद्यान्मधुरद्वद्यानि ततोम्ललवणौ रसौ ५२ षष्ठोऽध्यायः। स्वादुतिक्तौ ततो भूयः कषायकटुको ततः अर्थ-उक्त रोगीको प्रथम मधुर हितकारी तत्पश्चात् खट्टे और नमकीन, पश्चात् मीठे | अथाऽतो भेषजकल्पं व्याख्यास्यामः॥ और तीखे, तत्पश्चात् कसेले और कटुरस अर्थ-अब हम यहां से भेजषकल्प का पथ्य देवै। नामक अध्यायकी की व्याख्या करेंगे । विकृतको प्रकृतिपर लाना । । भन्योन्यप्रत्यनीकानां रसानां स्निग्धरूक्षयोः प्रशस्त भेषजके लक्षण । . व्यत्यासादुपयोगेन क्रमात्तं प्रकृति नयेत् । "धन्यसाधारणे देशे समेसन्मृत्तिकेशुची .. अर्थ-परस्पर प्रतिपक्षी अर्थात् एक दूसरे | श्मशानचैत्यायतनश्वभ्रवल्मीकवर्जिते की विरोधी मधुरादि रस तथा आपस में प्र | मृदौ प्रदक्षिणजले कुशहिषसंस्तुते । अफालकृष्टेऽनाक्रांते पादपैलवत्तरैः तिपक्षी रूक्ष और स्निग्ध द्रव्योंको विपर्याय शस्यते भेषजं जातं युक्तं वर्णरसादिभिः। रीतिसे उपयोग में लाकर वमनादि द्वारा वि. स्वजग्धं दवादग्धमाविदग्धं व वैकृतैः For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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