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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७१४) अष्टांगहृदय । अ०५ पुदे प्रणिहितः नेहो वेगाधावत्यनावृतः ॥ तत्राभ्यंगो गुदे स्वेदो वातघ्नाम्यशनानि च ऊर्ध्व कार्य ततः कंठाभ्यः खेभ्य एत्यपि अर्थ-उच्छसित करके वस्तिका मुख मुत्रश्यामांत्रिवृत्लिद्धो यवकोलकुळत्थवान् | बद्ध करने पर अथवा निःशेष वस्तिके देने तसिद्धतैलो देयः स्यानिरूहः सानुवासनः | पर वस्तिके भीतरवाली वायु भीतर प्रविष्ट कंठादागच्छतस्तंभकंठपहविरेचनैः। छर्दिनीभिःक्रियाभिश्च तस्यकुर्यानियहणम् | होकर और क्षुभित होकर शूल और तोद - अर्थ-बिना कुछ भोजन किये वा पेयामात्र उत्पन्न करती है । ऐसा होनेपर अभ्यंग, भाहार करने के पीछे गुदामें लगाई हुई वस्ति । गुदा में स्वेद और वातनाशक भोजन का अथवा जिसकी गुदामें सूजन हो उसके व- प्रयोग करना चाहिये । स्ति प्रयोग करनेसे वह वस्ति किसी दोषादि शीघ्रपणीति में चिकित्सा। से आवृत न होने के कारण ऊपर की द्रुतं प्रणीते निष्कृष्ट सहसोक्षिप्त एव था। देह में वेगसे दौडती है और कंठके ऊपर स्यारकरीगुदघोरबस्तिस्तंभार्तिभेदनम् । वाले मुख नासादि स्रोतों द्वारा निकल पडती | भोजन तत्र वातघ्नं स्वेदाभ्यंगाः सबस्तयः है। इसमें गोमूत्र, श्यामानिसौथ, निसौथ । अर्थ-वस्ति यदि शीघ्र दीजाय, शीघ्र इनका काथ, तथा जौ, बेर और कुलथी निकल आवे और सहसा उक्षिप्त होजाय का करक डालकर सिद्ध किया हुआ तेल तो कमर, गुदा, जंघा, ऊरु, तथा वस्तिमें निरूहण वा अनुवासन द्वारा देवै । स्नेहके स्तब्धता, वेदना और फटनेकी सी पीडा कंठसे निकलने पर स्तंभ, कंठग्रह, बिरेचन | तथा वमननाशक क्रियाओं द्वारा स्नेह | होती है । इसमें वातनाशक भोजन, स्वेद, को निकालना चाहिये। अभ्यंग और वस्तिका प्रयोग करना चाहिये। - अपक्व स्नेहमें उपाय। पीडन्यमान वस्ति में चिकित्सा । नापक्वं प्रणयेत्स्नेहं गुदं स ापलिंपति । पीडयमानेतरा मुक्त गुदे प्रतिहतोनिलः ४८ ततःकुर्यात्सरुडूमोहकंडूशोफानक्रियाऽनवा उरः शिरोरुजं सादमूर्वोश्व जनयेद्वली । तीक्ष्णो बस्तिस्तथा तैलमर्कपत्ररसे शुतम् । बस्तिः स्यात्तत्र बिल्वादिफलैःअर्थ-ऊपर की कही हुई दशामें गुदा श्यामादिमूत्रवान् ॥ ४९ ॥ द्वारा अपक्क स्नेहका प्रयोग न करना चाहिये । अर्थ-वस्ति पुटके पीडयमान होने पर क्योंकि कच्चे घोसे गुदा लिहस जाती है, बीच में ही कदाचित् गुदाके मुक्त होने पर और इससे वेदना,मोह , खुजली,सूजन आदि वायु प्रतिहत और बलवान होकर वक्षःस्थल उपद्रव उपस्थित होते हैं, ऐसा होनेपर तीक्ष्ण में और सिरमें वेदना करती है तथा दोनों 'वस्ति तथा आकके पत्तोंके रसमें सिद्ध किये ऊरुओं में शिथिलता हो जाती है ऐसी अहुए तेलका प्रयोग करना चाहिये । अन्य उपाय। वस्था में विल्वादि पंचमूल,मेनफल और श्याअनुच्छ्वास्य तु बद्धे वा दत्ते निःशेष एव च मादिगणोक्त द्रव्योंको गोमूत्रसे साधित करके प्रविश्य क्षुभितो बायुः शूलतोदकरो भवेत् । वस्ति देवै । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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