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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अ०१२ निदानस्थान भाषाटीकासमेत । (४५७) भरी हुई मशक की तरह इसको छूने से | कृच्छ्रम् ययोत्तरम् शब्द, प्रशाम और कंपन होता है । यह अर्थ-वातोदर, पित्तोदर, कफोदर, प्लीअन्य उदरों की अपेक्षा बडा, स्निग्ध,स्थिर । होदर, सन्निपातोदर उदकोंदर इनमेंसे उत्तऔर नामि के चारों ओर होता है, इसे । रोत्तर कष्टसाध्य होताहै, जैसे वातोदर से दकोदर कहते हैं । पित्तोदर और पित्तोदरसे कफोदर कष्टसाध्य उदररोग में जल की उत्पत्ति ॥ होताहै. ऐसेही और भी जानो । उपेक्षया च सर्वेषु दोषाः स्वस्थानतश्च्युताः | पाकाद्रवाद्रवीकुर्युःसंधिस्रोतोमुखान्यपि, वक्षतोदर का मारकत्व । स्वेदश्च वाह्यस्रोतासु विहतास्तिर्यगास्थितः | पक्षात्परम् प्रायोऽपरे हतः। तदेवोदकमाध्माप्य पिच्छां कुर्यात्तदाभवेत् । । अर्थ-बद्धोदर और क्षतोदर ये दोनों गुरुदरं स्थिरं वृत्तमाहतं च न शब्दयत् ४२ । एक पक्ष के पीछे प्राणोंका नाश कर देतेहैं । मृदु व्यपेतराजीकम् नाभ्यां स्पृष्टं च सर्पति तदनूदक जन्मास्मिन्कुक्षिवृद्धिस्ततोऽधिकम् | प्रायः ग्रहणसे यह भी समझना चाहिये कि सिरांतर्धानमुदकजठरोक्तम् च लक्षणम् । जिनकी आयु नियतहै वे नहीं भी मरतेहैं। अर्थ-तब प्रकारके जठररोग अच्छीतरह सर्वजातसलिलस्यमारकत्वम् । चिकित्सा न किये जानेपर वातपित्तादि दोष । सर्व वजातसलिलम रिष्टोक्तोपद्रवान्वितम् अपने अपने स्थानों को छोडकर और पाक | अर्थ-यह बात पहिले कह चुकेहैं कि को प्राप्त होकर अत्यन्त पतले पडजाते हैं सब प्रकार के जठररोगों में जलकी उत्पत्ति और संपूर्ण संधि तथा सोतोंके मुखों को होतीहै इसाये वातादि दोषसे उत्पन्न जाभी पतला करदेते हैं, और पसीना भी बाहर तोदक जठर यद्यपि कृच्छ्रसाध्य कहेगये हैं के स्रोतों में रुककर तिर्यक गतिको प्राप्त तथापि प्राणनाशक होजातेहैं। यहां भी प्रायः होता हुआ उस पूर्वसंचित उदक को कुक्षि शब्द अनुवर्तनीय है अर्थात् कभी २ जातोमें बढाकर पिच्छिलता करताहै । इससे उदर | दक जठर भी असाध्य न होकर याप्य हो भारी, स्थिर, गोलाकार, हाथसे पीटने पर जातेहैं । तथा रिष्टोक्त उपद्रवोंसे युक्त जठर शब्दहीन और कोमल होजाताहै । इसमें नसें | रोग भी मार डालताहै । दिखाई नहीं देतीहै । नाभि में हाथ लगाने से फैल जाताहै । तदनंतर जलका संचय ___ जन्मसे उदररोग को कृच्छ्रता । होताहै इससे उदर बहुत बढ जाताहै । संपूर्ण । जन्मनैवादरम् सर्व प्रायः कृच्छ्रतमं मतम् । वलिनस्तदजातांबुयत्न साध्यं नवोत्थितम् ॥ सिरा छिपजातीहैं और जलोदर के सब ___ अर्थ-प्रायःउदर रोग जन्मसे ही कृच्छ्रलक्षण उपस्थित होजाते हैं। उदररोग का कृच्छू साध्यासाध्यत्वता | साध्यतम होतेहैं, किन्तु यदि रोगी बलवान् वातपित्तकरुप्लीहसंनिपातोदकोदरम् ४४ हो, और उदर रोगमें जलका संचय न हुआ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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