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(४१६]
अष्टांगहृदय ।
अ० १२
खानेसे गुदा का द्वार रुद्ध होजाताहै, तब रकर अत्यन्त भयंकर जठररोग को उत्पन्न अपानवायु कुपित होकर पुरीष, पित्त और कर देता है । यह नाभिके नीचे के भागमें. कफको रोककर उदर रोगों को उत्पन्न कर- वृद्धि पाकर शीघ्रही जलोदर हो जाता है । तीहै, इसीका नाम वद्धगुदोदरहै । इस रोग । इसमें वातादि दोषोंके संपूर्ण लक्षण अधि. में दाइ, तृषा, ज्वर, हिचकी, खांसी, श्वास | कता से दिखाई देने लगते हैं, तथा श्वास, उरुओं में शिथिलता, तथा मस्तक, हृदय, तृषा, और भ्रम, उपस्थित होजाते हैं । इस नाभि और गुदामें बेदना, मलबद्धता, अरुचि का नाम छिद्रोदर है, कोई कोई इसे परिस्रावमन, और अधोवायु का न निकलना ये । वी उदर भी कहते हैं । सव उपद्रव उपस्थित होतेहैं । इस रोग में दकोदर के लक्षण । उदर स्थिर, नील और लाल नसोंकी रेखा.
प्रवृत्तस्रेहपानादेः सहसाऽऽमांबुपायिनः ।।
अत्यंबुपानान्मंदाग्नेः क्षीणस्यातिकृशस्य वा ओंसे व्याप्त, अथवा शिराओंसे रहित होता
रुध्वांऽबुमार्गाननिलः कफश्च जलमूर्छितः है । बदगुदादर में नाभि के ऊपर वाले वर्धयेतां तदेवांबु तत्स्थानादुदराश्रितो । भागमें गौ की पूंछ के आकारके सदृश होता
ततः स्यादुदरम्तृष्णा गुदखुतिरुजायुतम् ॥
| कासश्वासरुचियुतम् नानाबासिराततम् । ज.ताहै अर्थात् ऊपर की ओर पतला होता
| तोयपूर्णदृतिस्पर्शशब्दप्रक्षोभवेपथु ।।३९॥ चला जाताहै ।
दकोइरं महरिनग्धंस्थिरमावृत्तनाभि तत् । छिद्रोदरके लक्षण ।
अर्थ-जिस मनुष्य ने सोहपान और अस्थ्यादिशल्यः सानैश्चेद्भक्तैरत्यशनेनवा।। वमनविरेचनादि पंचकर्म का आरंभ कर भिद्यते पच्यते बांत्रं तच्छिद्रश्च स्रवन्वहिः।
दिया है और वह सहसा बिना औटाया हुआ आम एव गुदादेति ततोऽल्पाल्पं स बिडूसः। तुल्यः कुणपगंधेन पिच्छिलः पीतलोहितः।
जल पीले अथवा जो मनुष्य मन्दाग्नि से शवश्वापूर्य जठरं जठरं घोरमावहत् ॥३४॥ पीडित हो, व्याधि से क्षीण होगया हो वर्धते तदधो नाभेराशु चैति जलात्मताम् ।
अथवा लंघनादि से कृश होगया हो वह यदि उद्रिक्तदोषरूपंचव्याप्तं च श्वासतृभ्रमैः॥ छिद्रोदरमिदम् प्राहुः परिस्रावीति चापरे ।
अधिक जलपान करे तो उसके उदर में __ अर्थ-अस्थि, तृण, कांटा, पत्थर, धा. आश्रित वायु और कफ जल में मिलाकर तु, सींग, लकडी, आदि शल्योंका मिला हु जलवाही संपूर्ण स्रोतों को रोक देते हैं आ अन्न खानेते, अथवा प्रमाणसे अधिक और उदर स्थान में जल की वृद्धि करने खानेपर जो अंत्र फटकर छिद्रयुक्त होजाय, लगते हैं इस बढे हुए जलसे रोगकी उ. अथवा पक जाय और उसमेंसे सडा हआ, यत्ति होती है । इस रोंगमें तृषा, गुदाका पिच्छिल, पीला वा लाल रंगका मल मिला | स्राव, वेदना, खांसी, श्वास और अरुचि हुआ अपक रस गुदाद्वारा थोडा थोडा नि. | ये उत्पन्न होते हैं, पेट अनेक रंगकी सिराकलने लगे और यचा हुआ रस उदरको भ ओं से व्याप्त होजाता है । तथा जल से
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