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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०१२ निदानस्थान भाषाटीकासमेत । (४१५) विकृतभाव को प्राप्त होकर शोष, मूर्छा जठररोंग को उत्पन्न करदेती है । इसमें और भ्रमको उत्पन्न करते हैं, इस भयंकर | श्वास, खांसी, तृषा, मुखमें विरसता, आरोगमें तीनों दोषों के लक्षण पाये जाते हैं | ध्मान, वेदना, ज्वर, पांडुरंग, वमन, मूर्छा यह शीघ्र पकजाता है । यह रोग ठंडी अर्ति, दाह और मोह उत्पन्न होते हैं । प्लीहोहवा चलने पर वा वर्षा के दिन अधिक दर लाल रंग का वा विवर्ण होताहै और पेट कष्ट देता है । पर नीली वा हल्दीके रंगकी रेखायें होतीहै । प्लीहोदर का लक्षण ।। प्लीहोदर में वातादि ।। अत्याशितस्य सक्षोभाद्यानयानादिचेष्टितैः। | उदावर्तरुगानाहैमोहतृइवहनज्वरैः। अतिव्यवायकर्माध्ववमनव्याधिकशनैः। | गौरवारुचिकाठिन्यविद्यात्तत्र मलान् मात् वामपाश्वाश्रितःप्लीहा च्युतः स्थानाद्विवधते। अर्थ-प्लीहोदर में उदावर्त और आनाह हो शोणित वारसादिभ्यो विवृद्धं तं विवर्धयेत्। सोऽष्ठीलेवातिकठिनः प्राक्ततःकूर्मपृष्ठबत्। ता वातिका माह, पिपासा, दाह आर ज्वर क्रमेण वर्धमानश्च कुक्षावुदरमावहेत् । हो तो पैत्तिक । तथा भारापन, अरुचि और श्वासकासपिपासास्यबैरस्या ध्मानरुग्ज्वरैः कठोरता हो तो कफज समझना चाहिये । पांडुत्वछर्दिमूर्छार्तिदाहमोहेश्च संयतम्। यकृत के लक्षण । अरुणाभं विवर्ण वा नीलहारिद्रराजिमत् । क्लीहवहक्षिणात्पाात् कुर्याद्यकृदपि च्युतम् __ अर्थ-तृप्तिपर्यन्त पेट भरकर खाने के अर्थ-जैसे हिली कही हुई रीतिक अपीछे यानगमनादि चेष्टा द्वारा शरीर का | नुसार प्लीहा वाम पार्वमे च्युत होकर और संक्षोभ, अति मैथुन, मार्गगमन, और वम. बढकर प्लीहोदर उत्पन्न करे वैसेही यकृतभी नादि द्वारा शरीर का कृश होजाना, इन दक्षिण पार्श्वस च्युतहोकर और बढकर यकृत सब कारणोंसे बाई पसलीमें स्थित हुई प्लीहा उदर को उत्पन्न करती है । अपने स्थानसे हटकर विशेष रूपसे बढ़ने वडोदर के लक्षण । लगतीहै, अथवा रसादि धातुओं द्वारा बृद्धि पक्ष्मवालैः सहान्नेन भुक्तैर्बद्धायने गुदे ।२८ ॥ को प्राप्त हुआ रक्त अपने स्थान से च्युत दुर्नामभिरुदावर्तेरन्यैर्वात्रोपलेपिभिः। . वा अच्युत प्लीहा को विशेष रूपसे बढाताहै बर्च:पित्तकफान् रुद्धा करोति कुपितोऽनिल: यह बढी हुई प्लीहा अष्टीला के सदृश कठोर अपानो जठरं तेन स्युर्दाहज्वरतृक्षवाः। | कासश्वासोरुसदनं शिरोहन्नाभिपायुरुकू । और कछुए की पीठ की तरह आकृतिमें हो मलसंगोऽरुचिश्छर्दिरुदरं मूढमारुतम् । जातीहै । तथा ऋम क्रमसे बढकर कुक्षि में स्थिरं नीलारुणसिराराजिनद्धमराजि वा । x व्यभिचारिणी स्त्रियां अपने पति | नाभेरुपरि च प्रायो गोपुच्छाकृति जायते। वा अन्य किसी अपने प्रेमी जार पुरुष को अर्थ-पलक वा केश पड़े हुए अन्नको स्वाधीन करने के लिये खाने पीनेकी वस्तु खानेसे अथवा बवासीर के कारण, वा उदाओं में रजसंवधी रुधिर, नख, रोम, मल मूत्र आदि मिलाकर दे देती हैं इसको स्त्री | वर्तके कारण अथवा अंत्रको उपलिप्त करने दत्त विष कहते हैं। वाले दही, चांवल, उरद, अलसी आदि के For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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