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अष्टांगहृदय ।
अ० १२
नहीं रहती और मुखमें विरसता उत्पन्न हो । त्वचा और नेत्रादिक में पीलापन छा जाता जाती है।
है, पेटपर हरारंग और पीली तथा तांबे के वातोदर के लक्षण । रंगकी सी रगें निकल आतीहै, पसीना, तत्र वातोदरेशोफापाणिपान्मुष्ककुक्षिषु ॥ कुक्षिपाश्वोदरकटीपृष्ठरुक् पर्वभेदनम् ।।
उष्मा और दाह होता है । और ऐसा शुष्ककासांगमर्दोऽधोगुरुता मलसंग्रहः १३
मालूम होता है कि चूंआं सा निकलता है, श्यावारुगत्वगादित्वमस्माद्धिहासवत् । । छूने में बडा कोमल होता है पित्तोदर शीघ्र सतोदभेदमुदरं तनु कृष्णसिराततम् । १४ । पककर जलोदर में बदल जाता है, तथा आध्मातरतिवच्छन्दमाहतं प्रकरोति च। । इसमें सदा वेदना होती रहती है । घायुश्चात्र सरुकूशब्दो विचरेत्सर्वतोगतिः।
कफोदर के लक्षण । __ अर्थ-इनमें से वातोदर में हाथ, पांव,
श्लमोदरेंगसदनं स्वापश्वयथुगौरवम् । अंडकोष और कुक्षि में सूजन होती है । निद्रोक्लेशाऽरुचिःश्वासःकासःशुक्लत्वगादिता कुक्षि, पार्श्व, उदर, कटि, पृष्ठ में वेदना | उदर स्तिमितं श्लक्ष्णं शुक्लराजीततं महत्। होती है, अस्थियों के जोडों में हडफूटन
चिराभिवृद्धि कठिनं शीतस्पर्श गुरु स्थिरम् । होती है । सूखी खांसी, अंगमर्द देह के
अर्थ-कफोदर में अंगमें शिथिलता, नीचे के भागमें भारापन, मलवद्धता, त्वचा
सुन्नता अर्थात् स्पर्श का ज्ञान न होना, नेत्र, नख और मुखमें कालापन वा ललाई,
सूजन, भारापन, निद्रा, उत्क्लेश, अरुचि, विना कारणही उदरकी सूजन का कभी
श्वास, खांसी, और त्वचा आदि में सफेदी बढना और कभी घटना, उदर में सुई
| छा जाती है । तथा रोगी का उदर स्तिमित छिदने की सी वेदना, वा टूटने की सी चिकना, कठोर, छूने में ठंडा, भारी, अचल
देरमें बढने वाला और सफेद रंगकी सिरापीडा, पतली और काली सिराओंका व्याप्त होना, ये लक्षण होते हैं, पेट ऐसा फल | ओं से व्याप्त होजाता है। . जाता है कि उस पर हाथ मारने से ऐसा
त्रिदोषज उदररोग । शब्द होता है। जैसा हवासे भरीहुई मश्क | त्रिदोषकोपनैस्तैस्तैः स्त्रीदत्तैश्च रजोमलैः । पर हाथ मारने से होता है वातोदर में | गरदू'विषाद्यैश्च सरक्ताः सविता मलाः । शब्द और वेदना के साथ वायु सब जगह
कोष्ठं प्राप्य विकुर्वाणाःशोषमूछीभ्रमान्वितम् किरताहै।
कुर्युत्रिलिंगमुदरं शीघ्रपाकं सुदारुणम् । २१॥ पित्तोदर का लक्षण ।
वाधते तश्च सुतरां शीतवाताभ्रदर्शने। पित्तोरे ज्वरो मूर्छा दाहस्तटू कटुकास्यता ____ अर्थ-बातादि तीनों दोषों के प्रकुपित भ्रमोऽतिसारः पीतत्वं त्वगादावुदरं हरित्। करनेवाले हेतुओं से, तथा स्त्री के दिये पीतताम्रसिरानद्धं सस्वदं सोम दह्यते।।
हुए रज वा मल से, संयोगज बिष से. धूमायति मृदुस्पर्श क्षिप्रपाकं प्रदूयते ।१७।। . अर्थ-पित्तोदर में ज्वर, मूछो, दाह, | दूषीविषसे रक्त और वातादि तीनों दोष तृषा, मुखमें कडवापन, भ्रम, अतिसार, । कुपित होकर कोष्ठका आश्रय लेकर और
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