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(४१८)
अष्टांगहृदय ।
अ. १३
हो और रोग भी नया हो तो उसे यत्नसा- | और मांसको दूषित करके त्वचा में पांडु, ध्य समझना चाहिये ।
हलदी के रंग का वा हरा अनेक प्रकारका इतिश्रीअष्टांगहृदयसंहितायांभाषाटीकायां वर्ण उत्पन्न करता है । इन सब वर्गों में निदानस्थाने उदरनिदानं नाम पाडु वर्ण अधिक होता है, इसी से इसे पांडुद्वादशोऽध्यायः॥
रोग कहते हैं। पांडुरोग के लक्षण ।
. तेन गौरवम् । त्रयोदशोऽध्यायः । धातूनां स्याञ्च शैथिल्यमोजसश्च गुणक्षयः
ततोऽल्परक्तमेदस्को निःसारस्याच्छ्ल
थेंद्रियः। अथाऽतःपांडुरोगशाफविसर्पनिदानम् | मृद्यमानैरिवांगैर्ना द्रवता हृदयेन च ॥५॥
व्याख्यास्यामः- ।। शूनाक्षिकूटःसदनः कोपनःष्ठीवनोऽल्पवाक् अर्थ-अव हम यहांसे पांडुरोग, शोफ | अन्नाद्वि शिशिरद्वेषी शीर्णरोमा हतानलः॥ और विसरोग निदान नामक अध्याय की | सन्नसक्थो ज्वरी श्वासी फर्णक्ष्वेडी
भ्रमी श्रमी। व्याख्या करेंगे।
___ अर्थ-पांडुरोग से रस रुधिरादि धातुओं - पांडुरोग के लक्षण ।
में गुरुता और शिथिलता होती है और "पित्तप्रधानाः कुपिता यथोक्तैः कोपनैर्मलाः तत्रानिलेन बलिना क्षिप्तं पित्तं हृदि स्थितम्
| माधुर्यशैत्यादि ओजो गुणों का क्षय होता धमनीर्दश संप्राप्य व्याप्नुयात्सकलां तनुम् । है । इस कारण से रोगी के रुधिर और श्लेष्मत्वनक्तमांसानि प्रदूप्यांतरमाश्रितम् ॥ मेद कम होजाते हैं और वह निर्वल होजाता त्वङ्मांसयोस्तत्कुरुते त्वचि वर्णान्
पृथग्विधान् ।
| है तथा हाथ पांव वाणी पायु और उपस्थापांडुहारिद्रहरितान् पांडुत्वं तेषु चाधिकम्॥ दि इन्द्रियां शिथिल पडजाती है । अंगों में यतोऽतः पांडुरित्युक्तः स रोगः . मर्दनवत् पीडा होती है, हृदय में द्रवता,
अर्थ-पित्तप्रधान वातादिक संपूर्ण दोष । नेत्रगोलकों में सूजन, अंग में शिथिलता, सर्वरोगनिदानाध्याय में कहे हुए कुपित स्वभाव में क्रुद्धता, थूक का अधिक आना, करनेवाले हेतुओं द्वारा प्रकुपित होकर पांडु | कम बोलना, अन्न में अनिच्छा, शीतका रोग को उत्पन्न करतेहैं।
अच्छा न लगना, रोमों में शीर्णता, अग्नि इन तीनों कुपित दोषों में से बलवान | में मंदता, सक्थियों में निर्बलता, ज्वर, वायुद्वारा उत्क्षिप्त पित्त हृदयस्थ दस धम- श्वास, कर्णश्वेड, भ्रम और श्रम ये उत्पन्न नियों का आश्रय लेकर संपूर्ण शरीर में होते हैं । फैलजाता है । और त्वचा तथा मांस के
पांडुरोग के भेद । मध्य में स्थित होकर कफ, त्वचा, रक्त- स पंचधा पृथग्दोषैः समस्तैर्मृत्तिकादनात्॥
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