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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ८८६ ) दरं अधोमुख है वा ऊर्ध्वमुख है अथवा अतमुख है वाहिर्मुख है । अष्टांगहृदय | अ० २८. अन्तर्मुखादि में उपाय | चिकित्सा करना चाहिये । क्षतजमगंदर को असाध्य कहकर उसकी चिकित्सा करना चाहिये । यदि उसमें शल्य हो तो शल्यको 1 अथांतर्मुखमेषित्वा सम्यकशास्त्रेण पाटयेत् निकालकर क्रिमिनाशक प्रलेप और पथ्य बहिर्मुखे च निःशेषं ततः क्षारेण साधयेत् देना चाहिये । इससे यदि वेदना शांत न अग्निना वाधित्रक् साधुहारेणैयोष्ट्रकंधरम् हो तो सुस्निग्ध पिंडस्वेद और नाडी स्वेद आदि की व्यवस्था करनी चाहिये | | अर्थ- अंतर्मुखवाले भगंदर को एषणी नामक शलाका यंत्र से अन्वेषित करके दूसरे शस्त्र से चीर डाले । बहिर्मुखवाले भगंदर को निःशेष काटकर क्षार वा अग्निकर्मद्वारा दग्ध करदे । उग्रष्ट्रीय भगंदर को केवल क्षार द्वारा दग्ध करना चाहिये । बहुछिद्र भगंदर | सर्वत्र च बहुच्छिद्रे छेदानालोच्य योजयेत् गोतीर्थ सर्वतोभद्र दललांगललांगलान् ३० अर्थ- बहुत से छिद्रवाले भगंदरों में गोतोर्थ, सर्वतोभद्र, दललांगल और लांगल इन चार प्रकार के छेदोंको भगंदर की दशा पर विशेषरूप से आलोचना करके शस्त्रका प्रयोग करना चाहिये । गोतीर्थादि के लक्षण | पार्श्व गतेन शस्त्रेग छेदो गोतीर्थको मतः सर्वतः सर्वतोभद्रः पार्श्वच्छेदोर्घलांगलः । पाश्र्वद्वये लांगलकः शतपोनकभगंदर का यत्न । नाडीरेकांतराः कृत्वा पाटयेच्छतपोनकम् । तासु रूढासु शेषाश्चमृत्युदीर्णे गुदेऽन्यथा अर्थ - शतपोनक नामक भगंदर में सब नाडियों को बार बार न काटकर एक एक करके काटना चाहिये | काटी हुईको पहिले शुद्ध करके फिर दूसरी काटना चाहिये यदि एक साथ काटी जायगी तो रोगी मर जायगा । | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- जो छिद्र पसवाडे की ओर होता है उसे गोतीर्थक कहते हैं । जो छेद चारों ओर होता है उसे सर्वतोभद्र, जो एक पस को होता है उसे अर्द्धटांगल और जो दोनों ओर होता है उसे लांगल कहते हैं । भगंदर में अग्निदाह । परिक्षेपी का उपाय | परिक्षेपिगि चान्येवं नाडयुक्तैः क्षारसूत्र कैः । अर्थ - परिक्षेपी भगंदर को भी इसी रीति से एक एक नाडी में क्रम क्रमसे क्षारसूत्र का प्रयोग करना चाहिये । अशोभगंदर की चिकित्सा । अशभगंदरे पूर्वमसि प्रतिसाधयेत् । त्यक्त्वोपश्वर्यः क्षतजः शल्यं शल्यवतस्ततः आहरेच्च तथा दद्यात्कृमिघ्नं लेपभोजनम् पिंडनाडयादयः स्वेदाःसुस्निग्धारुजि पूजिताः अर्थ - अर्शोभगंदर में प्रथम अर्शकी | यतेत समस्तांश्चाग्निना दहेत् । आस्राव मार्गान्निःशेषान्नैवं विकुरुते पुनः ॥ अर्थ- स्राव के संपूर्ण मार्गों को अभि बिलकुल दग्ध करदे, जिससे घावमें फिर किसी प्रकार का विकार न होने पावे । भगंदर में कोटकी शुद्धि | काष्ठशुद्धौच भिषक् तस्यांतरांतरा | For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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