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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म०२८ उत्तरस्थान भाषाटीकासमत। (८८५) अर्शी भगंदर । लगता है तव कीड़े उत्पन्न होकर गुदा को कफपित्ते तु पूर्वोत्थं तुर्मामाश्रित्यकुप्यतः। विर्दीर्ण कर देते हैं, इस भगंदर को उन्मार्गी अ मूले ततः शोफ कंडूदाहादिमानभवेत् । वा क्षतन कहते हैं। स शीघ्र पक्कभिन्नोस्य क्लेदयन्मूलमर्शसः ।। भगंदर में वेदनादि। सबत्यजत्रं गतिभिरयमझे भगंदरः।। _ अर्थ-कफ पित्त यदि पहिले उत्पन्न हुई तेषु रुग्दाहकंइवादीन् विद्यादूव्रणनिषेधतः अर्श का आश्रय लेकर कुपित होजाय तो अर्थ-भगंदर में वेदना, दाह और खुजली उसके कारण से अर्श की जड़ में स्वजली आदि वैसेही चलती है जैसा व्रण प्रतिषेध और दाहादि युक्त सूजन पैदा होजाती है । अध्याय में वर्णन किया गया है। यह सूजन पककर फूट जाती है और अर्श भगंदर का साध्यासाध्य विचार । की जड को प्रक्छिन्न करके नाली में होकर षट्कृच्छ्रसाधनास्तेषां निचयक्षतजौ त्यजेत प्रवाहिनी वली प्राप्त सेवनी वा समाश्रितम् निरन्तर साव होने लगता है । ऐसी सूजन ___ अर्थ-इन भगंदरों में से छ: तो कष्ठ को अर्शोभगदर कहते हैं। शंबुकावर्त भगंदर । साध्य होते हैं । तथा सन्निपातज और क्षतज सर्वजः शंबुकावर्तः शंबुकावर्तसन्निभः ।। असाध्य होते हैं, जो भगदर प्रवाहिनी वली गतयोदारयंत्यस्मिन् रुग्धेगैरुणैर्गुदम् ।। और सेबनी वली में पहुँच जाताहै वह भी ... अर्थ-तीनों दोषों के प्रकोप से शबु. असाध्य होता है । कावर्त नामक भंगदर उत्पन्न होता है, इस पिटका के न पकने का यत्न की आकृति शबूक के समान होती है, इस अथाऽस्य पिटिकामेव तथा यत्नादुपाचरेत् में दारुण वेदना के वेगों से गुदनाडी शुद्धयासृक्नुतिसेकाधैर्यथापाकं न गच्छति विदीर्ण हो जाती है। ___अर्थ-भगंदर में पिटका होने के साथही . . उन्मार्गी भगंदर । शोधन, फस्त खोलना, और परिषेकादि अस्थिलेशोऽभ्यवहतोमांसद्धाययदागुदम् द्वारा विशेष रूप से यत्न करे जिससे पकने क्षमोति तियइनिर्गच्छन्नमार्गक्षततोगतिः न पावे । क्योंकि पकने परही भगंदर का स्यात्ततः पूयदीर्णायां मांसकोथेन तत्र च साध्य होना निर्भर है । आयते कृमयस्तस्य खादंतः परितो गुदम् । भगंदर का अवलेकन । विदारयति न चिरादुन्मार्गी क्षतजश्च सः पाके पुनरुपस्निग्धं स्वेदितं चावगाहतः। अर्थ-मांसभक्षी मनुष्य जब मांस के | यंत्रयित्वार्शसमिव पश्येत्सम्यग्भगवरम् । साथ हुड्डी के छोटे कण को खाजाता है | अर्वाचीनं पराचीन मंतर्मुख्यहिर्मुखम् २४ और अस्थिका कण आढा पड़कर गुदनाड़ी में । अर्थ-भगंदर के पकने पर स्नेहन और घाव करदेता है, फिर इस घाव में राध पड़, अवगाहन से स्वेदित करके अर्शफी तरह नाती है और इधर उधर का मांस सडचे । उसे सुयंत्रित करके देखना चाहिये कि भगं For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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