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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ४ शारीरस्थान भाषाटीकासमेत | [३०५) है । जानुसे तीन अंगुल ऊंचेपर आणि ना- | और अधोवायु निकलते हैं इसमें चोट लग मक मर्म है । इसके विद्ध होने पर उरुस्तंभ | ने से बहत ही जल्दी मत्य होजाती है। और सूजन होती है । ऊरुके मध्यमें उर्वी बस्त्याख्य मर्म। नामक मर्म होता है । इसके विद्ध होने पर | मूत्राशयो धनुर्वक्रो बस्तिरल्पास्रमांसगः ॥ रुधिरके क्षय होनेसे पांव सूख जाता है। उ- | एकाधोबदनोमध्ये कट्याः सद्यो निहत्यसून्। रु की जडमें लोहित नामक मर्म है इसके 'ऋतेऽश्मरीव्रणाद्विद्धस्तत्राप्युभयतश्च सः॥ मूत्रस्राव्येकतो भिन्नो व्रणो रोहेच्च यत्नतः । विद्ध होनेपर रुधिर निकलनेसे पक्षाघात हो देहामपक्कस्थानानां मध्ये सर्वसिराश्रयः॥ ता है । अंडकोष और वंक्षण के वीचमें वि | नाभिः सोऽपि हि सद्योघ्नोटप नामक मर्म है । इसके विद्ध होनेसे नपुं- | अर्थ-कटि के मध्यभाग में एक मूत्रासकता होती है ॥ शय नामक मर्म है, यह धनुषके समान टेढा. हाथों के मर्म के नाम । होता है, इसमें रक्त और मांस कम होता इतिसक्नोस्तथावाह्वोर्मणिबंधोऽत्रगल्फयत है, इसका एक मात्र मुख नीचे को होताहै कूर्परं जानुवत्कोण्यंतयोर्विटपवत्पुनः। इसमें अश्मरी निकालने के घावको छोडकर कक्षासमध्ये कक्षाधृक् कुणित्वंतत्र जायते ॥ अन्य प्रकार से विद्ध होने पर रोगी तत्काल - अर्थ-इसतरह हरएक पांवमें ग्यारह मर्म मरजाता है । वस्तिमर्म के दोनों ओर विद्ध होते हैं। तथा इसीके अनुसार हाथोंमें भी होने से मूत्र निकलने लगता है, और एक ग्यारह मर्म होते है । परन्तु वाहके मोंमें कु- ओर विद्ध होने पर व्रण बडी कठिनता से छ विशेषता है जैसे वाहुके मर्ममें गुल्फ के भरता है । देहके भीतर आमाशय और सदृश मणिबंध होता है। जानु के मर्मके सह पक्वाशय के वीचमें संपूर्ण सिराओं के आश कूपर है इन दोनोंके विद्ध होनेसे हाथ औ श्रित एक नाभि नामक मर्म है, यह भी र हाथकी अंगुलियों में कुजता अर्थात् टॉ तत्काल मृत्युकारक है। टापन आजाता है । कक्षा और अक्षके वी हृदयके मर्म । च में विटपके सदृश कक्षाधृक मर्म होता द्वारमामाशयस्य च। है इसके विद्व होने पर हाथों में टोटापन आ | सत्वादिधाम हृदयं स्तनोरः कोष्ठमध्यगम ॥ जाता है। ___ अर्थ-हृदय नामक मर्म भी शीघ्र प्राण स्थूलात्र बद्धके नाम । नाशक है, यह आमाशयका मुखस्वरूपहै, स्थलांत्रवद्धः सद्योनो विड्वातवमनो गुदः । इसमें होकर अन्नपान आमाशय में जाता अर्थ-अंत्र दो प्रकार के होते हैं, एक | है । यह सत्वरजतम तथा इन्द्रियों के वि. स्थूलांत्र, दूसरा सूक्ष्मांत्र । इनमें से स्थू- ज्ञान का धाम है तथा स्तन, वक्षःस्थल लांत्र में गुद नामक मर्म है । इसी से विष्टा | और कोष्ठ के वीचमें है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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