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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । अ० ४ - - - शरीर का प्रधान फलदायी लक्षण । | । अर्थ-पांव के तलुए में मध्यमा अंगुली दानशीलदयासत्यब्रह्मचर्यकृतज्ञताः । के सन्मुख बीच के भाग में एक तलहुत रसायनानि मैत्रीच पुण्यायुर्वृद्धिकृद्गुणः॥ मर्म होता है. उस में आघात अर्थात् चोट ___ अर्थ-दानशीलता, दया, सत्य, ब्रह्म लगने से तीव्र वेदना होकर मृत्यु होजाती चर्य, कृतज्ञता, रसायनक्रिया, और मित्रता | है । अंगूठा और उसके पास वाली उंगली ( संपूर्ण प्राणियों में आत्मभाव ), ये सब के बीच में क्षिप्रनामक भर्म है, उसमें विद्ध गुण पुण्य जनक और आयु को वढाने होने से आक्षेप नाम रोग उत्पन्न होने से वाले हैं। मृत्यु होती है । इस क्षिप्रमर्म से दो अंगुल इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां ऊंचा एक कूर्चनामक मर्म है उसमें विद्ध शारीरस्थाने तृतीयोऽध्यायः ।। होने से पादभ्रमण और कंपन होता है । गुल संध्यादि में मर्म । चतुर्थोऽध्यायः । गुल्फसंधेरधः कूर्चशिरः शोफरुजाकरम् ४ जंघाचरणयोः संधौ गुल्फो रुक्स्तंभमांधकृत् जंघांतरे त्विद्रबस्तिमारयत्यसृजः क्षयात् ॥ अथाऽतो मर्मावभाग शारीरं व्याख्यास्यामः ___ अर्थ-टकनों की संधि के नीचे एक अर्थ-अबहम यहांसे मर्मविभागशारीर कूर्चशिर नामक मर्म होता है, इसमें विद्ध नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । होने से सूजन और वेदना होती है । जंघा ममों की संख्या। और चरणों की संधि में गुल्फ. नामक मर्म "सातोत्तरं मर्मशतम् है, इसके बिद्ध होने पर वेदना, स्तब्धता ... तेषामेकादशादिशेत् । और अग्निमांद्य होता है, तथा इस में विद्ध पृथक्सक्थ्नोस्तथावाह्नोस्त्रीणिकोष्ठेनवोरास होने से रुधिर के निकलने से मृत्यु हो पृष्ठे चतुर्दशो_तु जत्रोस्त्रिंशच सप्त च । ___ अर्थ-संपूर्णमर्म १०७ है । इन में से | जाती है । प्रत्येक सक्थ्नि और प्रत्येक हाथ में ग्यारह , जंघादि के मर्मों के नाम । ग्यारह के हिसाब से ४४ हुए । कोष्ठमें : जंघोर्वोः संगमे जानुखंजता तत्र जीवतः । तीन, वक्षःस्थल में नौ, पीठमें चौदह और जानुनस्व्यंगुलादूर्ध्वमाण्यरुस्तंभशोफकृत् ॥ उलो॒रुमध्येतद्वधात्सक्थिशोषोऽस्रसंक्षयात् जत्रु से ऊपर सेंतीस मर्म हैं । ऊरुमूले लोहिताख्यं हंति पक्षमसृक्क्षयात् । विशिष्ट संज्ञावाले मर्म । मुष्कवंक्षणयोर्मध्ये विटपं षंढताकरम् । मध्ये पादतलस्याहुरभितो मध्यमांगुलिम् २ | अर्थ-जंघा और ऊरुकी संधिमें जानु तलहनामरुजया तत्र विद्धस्व पंचता। | नामक मर्म है इसके विद्ध होने पर मृत्यु हो अंगुष्ठांगुलिमध्यस्थंक्षिप्रमाक्षेपमारणम् ३॥ तस्योर्ध्वं यंगुले कूर्चः पाइभ्रमणकंपकृत् ।। जाती है । यदि मृत्यु न होतो खंजता होती, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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