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श्रीहरिम्बन्दे * श्रावृन्दावनविहारिणे नमः
॥ अथ कल्पस्थानम् ॥
प्रथमोऽध्यायः ।
अथाऽतो वमन कल्पं व्याख्यास्यामः ॥ इति ह स्माहुरायादयो महर्षय. ।
अर्थ - आत्रेयादि महर्षि कहने लगे कि - अब हम यहां से वर्मनकल्प नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे
. वमन विरेचन की प्रधान औषध । म मदन श्रेष्ठं त्रिवृन्मूलं विरेचने ॥
अर्थ- वमन के विषय में मैनफल और विरेचन के विषय में निसोथ प्रधान औषध है |
व्याधि के योग से जीमूत कोविशिष्टता ।
नित्यमन्यस्य तु व्याधिविशेषेण विशिष्टता ॥
अर्थ - किन्तु व्याधि विशेष के अनुसार जीमूतादि अन्य औषधों को भी विशिष्टता है |
वमन में मेनफल का यांग । फलानि तानि पांडूनि न चाऽतिहरितान्यपि आदायाऽह्नि प्रशस्तर्क्षे मध्ये ग्रीष्मवसंतयोः ॥ प्रमृज्य कुशमुत्तोल्यां क्षिप्त्वा बध्वा प्रलेपयेत् गोमयेनानुमुत्तली धाम्यमध्ये निधापयेत् ॥ मृदुभूतानि मध्विष्टगंधानि कुशवेष्टनात् । निष्कृष्य निर्गतेऽष्टा शोषयेत्तान्यथातपे ॥ तेषां ततः सुशुष्काणामुधृत्य फलपिप्पलीः |
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दधिमध्याज्यपललैमृदित्वा शाषयत्पुमः ॥ ततः सुगुप्तं संस्थाप्य कार्यकाले प्रयोजयेत् ।
अर्थ - गीष्म और वसंत ऋतु के बीच वाले दिनों में किसी शुभ नक्षत्र में ऐसे मेनफल लावे जो पक कर अत्यन्त पीले न होगये हों और कच्चे होने के कारण हरे भी न हों । इन फलों का मैल आदि दूर करके कुशाओं के संपुट में रखकर ऊपर से गोवर लपेट दे । गोवर के सूखजाने पर इसको अन्न के ढेर में गाढ दे । जब ये मैंनफल नरम होनांय और इनमें मदिरा वा इष्ट कीसी गंध आने लगे तब आठ दिन के पीछे कुशाओं को अलग करके धूप में सुखा लेवे । अच्छी तरह सुखजाने पर फलों के वीजों को निकाल डाले और इनमें दही, शहत, घी और तिल का चूर्ण मर्दन करके फिर सुखावे फिर इनको काच के पात्र में भरकर डाट लगाकर वमनकाल के समय काम में लावै ।
मैंनफल के सेवन की विधि | अथाऽदाय ततो मात्रां जर्जरीकृत्य वासयेत् ॥ शर्वरीं मधुयया वा कोविदारस्य वा जले । कर्बुदारस्य विंग्या वा नपस्य विदुलस्य वा शणपुष्याः सदा पुष्प्याः प्रत्यक्पुष्प्युदकेऽथवा ततः पिबेत्कषायं तं प्रातर्मृतिगालितम् ॥
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