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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. १५ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । उदररोग में अरिष्टपान । विशेष करके सन्निपातोदर में जव किसी जयेदरिष्टगोमूत्रचूर्णायस्कृतिपानतः ।। उपाय से फलासद्धि नहो तब रोगीके परिसक्षारतैलपानश्च दुर्वलस्य कफोदरम् ॥ | वार के लोगों से पूछकर कि जो दवा हम __ अर्थ-दुर्बल कफोदर रोगी को अरिष्ट देते हैं वह विष विषम है, इससे रोगी मगोमत्र, चूर्ण अयस्कृति, तथा क्षारसंयुक्त रेगा वा जीवेगा इसमें संदेह है काकादनी, तेल पान कराके कफोदर को दूर करनेका चिरमिठी और कनेर इनकी जडको पीसकर उपाय करै। मदिरा के साथ पान करावे । उदररोग में उपनाह । स्थावर विषका प्रयोग । उपनाां ससिद्धार्थकिण्वैर्बीजैश्च मूलकात्। पानभोजनसंयक्तं दद्याद्वा स्थावर विषम् । कलिकतैरुदरस्वेदमभीक्ष्णं चाऽत्र योजयेत् ॥ "| यस्मिन्वा कुपितः सो विमुंचति फले . अर्थ-सफेद सरसों, सुराबीज, और | विषम् ॥ ७९ ॥ मूली के बीजों का कल्क करके दुर्बल जठर तेनास्य दोषसंघातः स्थिरो लीनो विमार्गगः रोगी के पेट पर लेप करके बार वार | | बहिः प्रवर्तते भिन्नो विषेणाशु प्रमाधिना ॥ स्वेदन करे। तथा ब्रजत्यगदतां शरीरांतरमेव वा ।। सन्निपातोदर की चिकित्सा। अर्थ-अथवा खाने और पीने में स्थावर सन्निपातोरे कुर्यान्नातिक्षीणबलानले। अर्थात् वत्सनाभ विषका प्रयोग करे । अथवा दोषोद्रेकानुरोधन प्रत्याख्याय क्रियामिमाम जिस फलमें सर्प कुपित होकर विष उगले दतीद्रवंतीफलजं तैलं पाने च शस्यते। उस बिषफलको देना चाहिये । इस प्रमाथी ___ अर्थ-सन्निपातज उदररोग में यदि विषसे रोगी की धातुओं में लीन, विमार्गरोगी का बल और जठराग्नि अत्यंत क्षीण न गामी, स्थिर दोषसमूह शीघ्र छिन्न भिन्न हुए हों तो प्रत्यारव्यान करके जो दोष | होकर बाहर निकल जाता है, इससे या तो प्रवल हो उसी के अनुसार चिकित्सा करे रोगी निरोग होजाताहै, वा मरजाताहै । इसमें दंती और द्रवंती के फलों का तेल पीना हित है । प्रत्याख्यान का यह तात्पर्य हृतदोषमें कर्तव्य । हृतदोषं तुं शीतांबुस्नातं तं पाययत्पयः।। है कि चिकित्सा न करने पर रोगी अवश्य पेयां वा त्रिवृतशाकं मंडूक्या वास्तुकस्य वा मर जायगा और चिकित्सा करने पर स्यात् कालशाकंयवाख्यं वा खादेत्स्वरसंसाधितम् जी पडे । निरम्ललवणस्नेहं स्विन्नास्विन्नमनन्नभुक्। त्रिदोषज जठर में चिकित्सा ।। मासमेकं ततश्चैवं तृषितः स्वरस पिवेत् ॥ क्रियानिवृत्ते जठरे त्रिदोषे तु विशेषतः ॥ अर्थ-ऊपर कही हुई रीतिसे जब उदरदद्यादापृच्छयतजातीनपातुमधनकल्कितम | रागी का दोष निकलजाय, तब उसको मुलं काकादनीगुंजाकरवीरकसंभवम् । ७८। शीतल जलसे स्नान कराके शीतळ दूध और अर्थ-सन प्रकार के उदररोगों में और पेया का पान करावै । अथवा निसौथ, मंद For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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