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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९८८) मष्टांगहृदय । अ. ४० ही में प्रीति हो तो चरकसुश्रुत को छोडकर युर्वेदरूप वाणीमय पयोनिधि का हृदयस्वरूप भेड जातुकर्णादि मुनियों के बनाये हुए है । अर्थात् जैसे हृदय शरीर का एक देश ग्रंथों को वैद्यलोग क्यों नहीं पढ़ते हैं, ये होनेपर भी दशमूल सिराओं के द्वारा संपूर्ण ग्रंथ भी ऋषियोही के बनाये हुएहैं । परन्तु शरीर में व्याप्त होता है, उसी तरह यह . सुभाषित होने के कारण चरकसुश्रुत को भी सूत्रशारीरादि छः स्थानों द्वारा शल्य वाहुल्यभाव से पढतेहैं, भेडजातुकर्णादि | शालाक्यादि अष्टांग से संपन्न वाणीमय कृत ग्रंथाको नहीं पढतेहैं, इसलिये यह | संपूर्ण आयुर्वेद में व्याप्त होकर स्थित है । निश्चयहुआ कि सुभाषित ग्रंथही आदरणीय ऐसे हृदय के विधान द्वारा जो परम कल्याण और ग्राह्य होते हैं । इसलिये यद्यपि यह प्राप्त हुआ है उस शुभसे जगत का ग्रंथ अनार्ष है तथापि चरकसुश्रुतवत् सुभाषित कल्याण हो। होने के कारण मतिमान्वैद्य इसको अवश्य इतिश्रीसिंहगुप्तसूनुवाग्भट विरचितायां ' ग्रहण करें। अष्टांगहृदय संहितायां मथुरा निवासंसार की मंगलकामना ॥ सि श्रीकृष्णलाल कृत भाषा हृदयामिव हृदयमेतत्सर्वायुर्वेदवाङ्मयपयोधेः टीकान्वितायांउत्तरस्थाने दृष्टवा यच्छुभमाप्तंशुभमस्तुपरंततोजगतः वाजीकरणनामचत्वा. अर्थ-यह हृदय नामक ग्रंथ संपूर्ण आ- | रिंशोऽध्यायः। BAYAYRURUAUS समाप्तम् । ตะผงดงละคงลด For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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