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मष्टांगहृदय ।
अ. ४०
ही में प्रीति हो तो चरकसुश्रुत को छोडकर युर्वेदरूप वाणीमय पयोनिधि का हृदयस्वरूप भेड जातुकर्णादि मुनियों के बनाये हुए है । अर्थात् जैसे हृदय शरीर का एक देश ग्रंथों को वैद्यलोग क्यों नहीं पढ़ते हैं, ये होनेपर भी दशमूल सिराओं के द्वारा संपूर्ण ग्रंथ भी ऋषियोही के बनाये हुएहैं । परन्तु शरीर में व्याप्त होता है, उसी तरह यह . सुभाषित होने के कारण चरकसुश्रुत को भी सूत्रशारीरादि छः स्थानों द्वारा शल्य वाहुल्यभाव से पढतेहैं, भेडजातुकर्णादि | शालाक्यादि अष्टांग से संपन्न वाणीमय कृत ग्रंथाको नहीं पढतेहैं, इसलिये यह | संपूर्ण आयुर्वेद में व्याप्त होकर स्थित है । निश्चयहुआ कि सुभाषित ग्रंथही आदरणीय ऐसे हृदय के विधान द्वारा जो परम कल्याण
और ग्राह्य होते हैं । इसलिये यद्यपि यह प्राप्त हुआ है उस शुभसे जगत का ग्रंथ अनार्ष है तथापि चरकसुश्रुतवत् सुभाषित कल्याण हो। होने के कारण मतिमान्वैद्य इसको अवश्य इतिश्रीसिंहगुप्तसूनुवाग्भट विरचितायां ' ग्रहण करें।
अष्टांगहृदय संहितायां मथुरा निवासंसार की मंगलकामना ॥
सि श्रीकृष्णलाल कृत भाषा हृदयामिव हृदयमेतत्सर्वायुर्वेदवाङ्मयपयोधेः
टीकान्वितायांउत्तरस्थाने दृष्टवा यच्छुभमाप्तंशुभमस्तुपरंततोजगतः वाजीकरणनामचत्वा.
अर्थ-यह हृदय नामक ग्रंथ संपूर्ण आ- | रिंशोऽध्यायः।
BAYAYRURUAUS
समाप्तम् । ตะผงดงละคงลด
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