SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1084
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ०४० www.kobatirth.org उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । में वैसा नहीं है, इसलिये जो चरकको न पढकर केवल सुश्रुत को पढता है वह सुश्रुत में कही हुई प्रक्रिया के अनुसार दोष दूष्यकाल शरीर सत्व और सात्म्यादि लक्षणों में पारगामी होकर भी खांसी श्वासादि की चिकित्सा में कुछ भी करने को समर्थ नहीं है । और हमारे इस अष्टांगहृदय ग्रंथ में सभी विषयों का सविस्तर वर्णन किया गया है । आद्यग्रथों के पाठ से लाभ न होना । अभिनिवेशवशादाभियुज्यते सुमणितेऽपि न यो दृढमूढकः । पठतु यत्नपरः पुरुषायुषं स खलु वैद्यकमाद्यमनिर्विदः ॥ ८४ ॥ अर्थ- जो मूढमति आद्यवैद्यक ग्रंथों का पक्षपाती होकर इस कचिके बनाये हुए सुभाषित ग्रंथका अनादर करता है वह यत्नपूर्वक निर्वेदरहित होकर यावज्जीवन शतसाहस्त्री ब्रह्मसंहिता को पढता रहे । इसका यह भावार्थ है कि उस ग्रंथको पढ़ते पढते उसकी चुद्धि, मेधा और जीवनशक्ति का नाश हो जाय तब भी उस शास्त्रका चिन्तन, अवबोधन और अनुष्ठानादि कुछ भी न कर सकेगा, इसलिये यह दीर्घ कालका परिश्रम उन के लिये निरर्थक होगा | उक्तकथन में कारण । वाते पित्ते श्लेष्मशांती च पथ्यं तैलं सर्पिर्माक्षिकं च क्रमेण । एतद् ब्रह्मा भागते ब्रह्मजो वा का निर्मत्रे वक्तभेदोक्तिशक्तिः अर्थ - तैल स्वाभाविकही वातको शमन करने वाला है, घी पित्तको शमन करने Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९८७ ) वाला और शहत कफनाशक है । यह बात ब्रह्मा ने कही है और ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमारादि ने भी यही कहा है । तैलादि की जो 1 वातादि प्रशमक ऐसी स्वाभाविक शक्ति है, व्यक्ति विशेष की उक्ति से उसकी कोई भौर शक्ति हो सकती है । ऐसा कभी नहीं हो सकता है । जो जिसकी स्वाभाविक शक्ति है वह अवश्य ही होती है, इसलिये पूर्वषियों के ग्रंथही पढने के योग्य हैं, आधु. निक कवियों के ग्रंथ पढने योग्य नहीं हैं, यह विचारना मुर्खों का काम है | उक्तकथन में अन्य युक्ति अभिधातृवशात् किंवाद्रव्यशक्तिर्विशिष्यते अतो मत्सरमुत्सृज्य माध्यस्थ्यमवलंब्यताम् अर्थ - जब वक्ताविशेष की उक्ति से तैळादि द्रव्यों में शक्ति विशेष नहीं हो सकती है तो मत्सरता को त्याग कर के माध्यस्थ का अवलंबन करना चाहिये । अर्थात् आर्ष ऋषिप्रणति ग्रंथही पढने चाहियें आधुनिक ऋषियों के ग्रंथ न पढने चाहिये यह कभी मन में न विचारना चाहिये | अपनी बुद्धि से ग्रंथ की उपकारिता वा अनुपकारिता पर ध्यान देकर जो सुभाषित और अल्प परिश्रम से साध्य हो उस को अवश्यही पढना चाहिये । सुभाषित ग्रंथका आदर ! ऋषिप्रणीते प्रीतिश्चे न्मुक्त्वा चरकसुश्रुतौ । भेडाद्याः किं न पठयंते तस्माद् ग्राह्यंसुभाषितम् ॥ ८७ ॥ अर्थ-यदि ऋषिप्रणति प्रथमात्र के पढने For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy