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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रस्थानं भाषाटीका समेत । लिखा है वैसी अग्निवेश में नहीं है; ऊर्ध्वगचिकित्सा जैसी जनक प्रणीत ग्रन्थ में वर्णित है वैसी सुश्रुतादिमें नहीं है । इत्यादि कारणों से इन सब ग्रन्थोंसे सार सार विषयों का संग्रह करके बहुत विस्तारपूर्वक न बहुत संक्षेपसे यह " अष्टांगहृदय" नामक ग्रन्थर है । इस ग्रन्थका यह नाम ' यथानाम तथा गुण' के अनुसारहै, यथा शरीरके सब अवयवोंमें हृदय प्रधान वैसेही अष्टांग आयुर्वेद में यह ग्रन्थ प्रधान अथवा अष्टांग आयुर्वेद के प्रत्येक अंग का सार सार ग्रहणकरके यह ग्रन्थरचा है सो यहसव अंगों का सारभूत अष्टांगहृदय है । आठ अंगों के नाम | काय बालग्रहोर्ध्वगशल्पदंष्ट्राजरानृषान५ अष्टावंगानितस्याहुश्चिकित्साय पुंसविता अर्थ - कायचिकित्सा, बालचिकित्सा, ग्रह चिकित्सा, ऊर्ध्वगचिकित्सा, शल्यचिकित्सा दंष्ट्रा चिकित्सा, जराचिकित्सा, और वाजीकरण ये आयुर्वेद के आठ अंग हैं । जिस अवस्था में दोष, धातु, और मलका अच्छी तरह संचय होजाता है उस अवस्थामें देहकी काय संज्ञा होती है । इस तरह संपूर्ण शरीर के उपतापक आमाशय और पक्काशय स्थानोंसे उत्पन्नज्वर, रक्त, पित्त, अतिसार आदि रोगों के शमन करने के उपाय जहां लिखे हैं उसे कायचिकित्सा कहते है । संपूर्ण वल, सत्व और धातुओंसे युक्त होनेके कारण यौवनावस्थाका उपयोगी अंग सब से प्रथम कहा गया है । असंपूर्ण बलधातुवाला अपक अवस्थावाले बालकोंके होनेवाले रोग और उनकी शान्ति के उपायवाला बालचिकित्सा नामक दूसरा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३ ) अंग पृथक् कहागयाहै इसके पृथक् करनेका कारण यह है कि बालक और युवावस्थाकी देह के रोगोंके हेतुओं में बड़ा अंतर है और उनके उपायोंमें भी बड़ा अंतर है । इसी तरह प्रसंगानुसार एकके पीछे एकअंग वर्णन किया गया है । तीनों दोषोंका वर्णन । वायुः पित्तकफश्चेतित्रयोदोषाः समासतः ६ 1 अर्थ - वायु, पित्त और कफ ये तीन दोष संक्षेपसे कहे गये हैं, और संसर्ग, सन्निपात, क्षय, समता, आदि भेदोंसे ये दोष अगणित हैं । कोई कोई कहते हैं कि ये देहमें प्रस्तुत रहते हैं इससे इनको धातु कहना उचित है । ऐसाही हो, किन्तु रसादिकोंके दूषित होनेही से ये विकार उत्पन्न कर सकते हैं, यही दिखानेके लिये बातादिक की दोष संज्ञा है । चरकसंहितामें भी इनकी दोष संज्ञाही लिखी है " वायुः पित्तकफरचोक्तं शरीरेदोवसंग्रहः " 1 मूल ग्रन्थमें वायु, पित्त और कफ, ये तीनों पद अलग अलग दिये हैं इससे इन तीनों को ही प्राधान्य है । कोई कोई कहते हैं कि जैसे दोषों के स्थान, लक्षण, कार्य, विकार और चिकित्सा कहेगये हैं वैसेही रक्तके भी हैं इसलिये रक्तकी चौथे दोपमें गणना होनी चाहिये परन्तु यह बात ठीक नहीं है क्योंकि वातादिक स्वतंत्र हैं इसीसे इनको प्रधानता है और इसीसे ये रक्तादि को दूषित करते हैं परन्तु रसादिक परतंत्र होने से कुछ भी नहीं कर सकते । दोषों की शक्ति | I विकृताऽविकृता देहं घ्नंति ते वर्तयंति च । अर्थ-ज - जब बातादिक दोष बिगड जाते हैं For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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