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( ४ )
तब मनुष्यके जीवनका नाश करदेते हैं और जब विकार रहित होजाते हैं तब फिर देहको स्वस्थावस्थामें ले आते हैं ।
व्यापक दोषोंके स्थान । ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्पोरघोमध्योर्ध्वसंश्रयाः ॥ ७ ॥
अष्टांगहृदये |
दिखलाती है । कहा भी है “ आदौ षड्समप्यन्नं मधुरीभूतमीरयेत् । फेनीभूतं करुं वातं विदाहादम्लतां ततः ॥ पित्तमामाशयात्कुर्य्याच्च्यवमानं च्युतं पुनः । अग्निना शोषितं पकं पिंडितं कटुमारुतं " ॥ जठराग्निका स्वरूप | तैर्भवेद्विषमस्तीक्ष्णोमंदश्चाभिः समैः समः ८ अर्थ- वातादिक दोषोंके संर्सगसे जठराग्नि चार प्रकारका होता है, जैसे वातके उत्कर्ष से अग्नि विषम, पित्तके उत्कर्षसे तीक्ष्ण, कफ के उत्कर्षसे मंद और दोषोंकी समानता से अग्नि सम होता है । जहां एकही कालमें दो दोषोंका उत्कर्ष होता है वहां वैद्यको अपनी aussोरात्रिभुक्तानां तेंत मध्यादिगा : बुद्धिसे बिचारना उचित है जैसे वातपित्त इन क्रमात् । दो दोषोंके उत्कर्षसे वायुके योगवही होने के कारण अग्नि तीक्ष्ण, वात और कफके उत्क र्षसे मन्द और कफ तथा पित्तका उत्कर्ष होने से आहारके अनुसार कभी तीक्ष्ण और कभी मंद होता है ।
दोषका काल ।
अर्थ- ये दोष सदाही देहमें रहते हैं परन्तु इनमें विशेषता इस प्रकार होती है, यथा मनुष्यकी आयुके पिछले भाग में वायुका कोपकाल होताहै मध्य भागमें पित्तका और आदि भाग में कफका कोपकाल होता है । इसी प्रकार दिन और रात्रिके पिछले भागमें वायुका, मध्य भामें पित्तका और प्रथम भागमें कफका कोपकाल होताहै । इसीतरह भोजन करनेके पीछे आहार के पचनेकी अवस्थामें वायुका, पचने से पहिले विदाही अवस्था में पित्तका और भोजTh करतेही जिसमें आहारका मधुरीभाव रहai ककका कोपकाल होता है । यद्यपि जठराग्निके संयोगसे आहारकी बहुतसी सूक्ष्म अवस्थाओंका होना संभव है परन्तु इन्हीं का बहुत उपयोग होनेसे इन तीनोंकाही वर्णन है और येही तीन अवस्था अपने अपने कामको
अर्थ-ये वातादिक दोष संपूर्ण देहमें व्यापक हैं तथापि उनके विशेष स्थान इस रीति सेहैं - वायुका स्थान नाभिसे नीचे के अंगोंमें है, नाभि और हृदय के बीच में पित्तका स्थान है और कफका स्थान हृदयसे ऊपरके अंगों में है ।
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चारप्रकारका कोष्ठ । कोष्ठः क्रूरोमृदुर्मध्योमध्यः स्यात्तैः समैरपि । अर्थ - वातादि दोषोंसे कोष्ट क्रमसे क्रूर, मृदु और मध्य होता है, जैसे वातके उत्कर्ष क्रूर, पित्तके उत्कर्षसे मृदु, कफके उत्कर्ष से मध्य तथा जब तीनों दोष समान भाव होते हैं।
( १ ) योगवाहीका यह अर्थ है कि वायु जिससे जा मिलता है उसीके गुणकी वृद्धि करता है जैसे वायुके उत्कर्ष में अग्नि तीक्ष्ण है परन्तु जब वह मन्दप्रकृतिवाले कफुसे मिलत है तो उसकी मन्दताको बढाता है । ..
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