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अ. ७
उत्सरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७६१)
मन
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हृदय और संपूर्ण स्रोतों का प्रबोध कराने | प्रस्थं तद्वद् द्रवैः पूर्व पंचगव्यामिदं महत् । के निमित्त तीक्ष्ण वमनादि कर्मका प्रयोग करे ज्वरापस्मारजठरभगंदरहरं परम् ॥ २३ ॥ ___ दोषानुसार विरेचनादि।
शोफाक्षः कामलापांडुगुल्मकासग्रहापहम् । पातिक बस्तिभूयिष्ठैः पैत्तं प्रायो विरेचनैः ।।
___अर्थ-दशमूल, त्रिफला,हलदी, दारुहलश्लैष्मिकं वमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् । । दी, कुडाकी छाल, सातला, ओंगा, नीलनी,
अर्थ-वातिक अपस्मारमें वस्तिप्रधान कुटकी, अमलतास, पुष्करमूल, जटामांसी, चिकित्सा द्वारा, पैत्तिक अपस्मारमें विरेचन | काकोडुम्बर की जड, और दुरालभा प्रत्येक प्रधान चिकित्साद्वारा और कफज अपस्मार दो पल इनको एक द्रोण जलेमें पकाकर चौमें वपनप्रधान चिकित्साद्वारा उपचार करे। थाई शेष रहने पर उतार कर छानले। फिर
संशमन औषधियों का विधान । | भाडंगी, पाठा, अरहर, निसोथ, दंती, त्रिकुसर्वतस्तु विशुद्धस्य सम्यगाश्वासितस्यच टा, रोहिषतृण, मूर्वा, अजवायन, चिरायता,
भपस्माविमोक्षार्थ योगान्संशमनान् शृणु। हरड. दोनों सारिवा, मदयंती, चीता, और - अर्थ-वमनविरेचनादि द्वारा सब तरहसे
जलवेत प्रत्येक एक तोला इनका कल्क मिशुद्ध हुए तथा पेयापानादि द्वारा संसर्गी क
लाकर एक प्रस्थ घी तथा पूर्वोक्त द्रव्य अ. रके सम्यक् आश्वासन किये हुए रोगी को
र्थात गोवर का रस, दूध, दही और गोमूत्र अपस्मार की शांति के निमित्त जिन संशम
मिलाकर पाककी रीतिसे पाक करे इस घृत नादि औषधियों का प्रयोग किया जाता है,
का नाम महत्पंचगव्य वृत हैं। इसके पान उनका वर्णन करते हैं। __ अपस्मारनाशक घृत ।
करने से ज्वर, अपस्मार, उदर रोग और भ. गोमयस्वरसक्षीरदाथिमृत्रः शतं हविः। गंदर दूर होजाते हैं तथा शोफ, अर्श, काअपस्मारज्वरोन्मादकामलांतकरं पिबेत् । । मला, पांडुरोग, गुल्मरोग, खांसी और ग्रह इ.
अर्थ-गोवर का रस, दूध, दही और गो न के दूर करने में परमोत्तम है। मूत्र इनके साथ घृत पकाकर पान करावै,इ- ____ उन्माद पर अन्य घृत ससे अपस्मार, ज्वर, उन्माद और कामलारो- ब्राह्मीरसंवचाकुष्टशंखपुष्पी शृतं घृतम् ॥ ग शांत होजाते हैं।
पुराणं मेध्यमुन्मादालक्ष्म्यपस्मारपाप्मजित् महत्पंचगव्य घृत ।
अर्थ-ब्राह्मी का रस, बच, कूठ और द्विपंचमूलीत्रिफलाद्विनिशाकुटजत्वचः ॥ शंखपुष्पी इनके साथ पकाया हुआ पुराना सप्तपर्णमपामार्ग नीलिनी कटुरोहिणीम् । घी मेधावर्द्धक है तथा उन्माद, अलक्ष्मी, शभ्याकपुष्करजटाफल्गुमूलदुरालभाः ॥
अपस्मार और पाप रोगों को जीतनेवालाहै। द्विपलाः सलिलद्रोणे पक्त्वा पादावशेषते। भार्गीपाठाढकीकुंभनिकुंभव्याषरोहिषैः ॥
उक्त रोग पर तेल । मूर्वाभूतिकभूनिंबधेयसीलारिवाद्यैः। तैलप्रस्थं घृतप्रस्थं जीवनीयैः पलोन्मितः॥ मदयंत्याग्निनिचुलैरक्षांशैः सर्पिषः पचेत् ॥ क्षीरद्रोणे पचेत्सिद्धमपस्मारविमोक्षणम् ।
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