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म०
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
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करनेवाला, रुद्र के ऊर्ध्वनयन से उत्पन्न, जन्म और मरण काल में मोहोत्पादक, संतापात्मक और अपचारज और दुश्चिकिस्त्य होता है । यह अनेक योनियों में अनेक नामों से अवस्थिति करता है । ज्वर के भेद |
पन हेतुओं से कुपित होकर ज्वर उत्पन्न करते हैं जैसे तिक्तादि हो वात, कटुकादि से पित्त, और मधुरादि से कफ, इसी तरह द्वन्द्व और सन्निपात में भी जानना चाहिये। आगंतु से भी दोष प्रकुपित होकर ज्वर उत्पन्न करते हैं यद्यपि आगंतुज उवरका
स जायतेऽष्टधा दोषैः पृथग्मिः समागतैः । हेतु आगंतुक ही है, तथापि इसमें वातादि - आगंतुश्च कही हेतु है । क्योंकि वातादि के सिवाय व्याधि का होना ही असंभव है, अंतर केवल इतना है कि दोषज व्याधि में प्रथम वातादिक कुपित होते हैं फिर शारीरक वेदना होती है । आगंतुक व्याधि में प्रथम शारीरक वेदना होकर पीछे दोष कुपित हैं । ज्वर के उत्पन्न होने का सिलसिला यह है कि म अपने प्रकोपन हेतुओं से कुपित होकर आमाशय में प्रविष्ट होकर आमका अनुगमन करके रसादिवाही स्रोतों को आच्छादित कर देता है, और पाकस्थानसे जठराग्नि को बाहर निकालकर, उसी अग्निके साथ संपूर्ण शरीर में फैलकर संपूर्ण शरीर को तपायमान करके देहको अत्यन्त उष्ण करके ज्वरको उत्पन्न करता है । ज्वरमें स्रोतों के
अर्थ - यह संताप लक्षणवाला ज्वर आठ प्रकार का होता है, यथा— पृथक् पृथक् दोषों से तीन प्रकारका, दो दो दोषों के मिलने से तीन प्रकार का, तीनों दोषों के मिलने से एक प्रकार का और आगन्तु एक प्रकारका होता है, जैसे वातज, पित्तज, कफज, वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज वातपित्तकफज, और आगन्तुज । ज्वर की संप्राप्ति ।
मलास्तत्र स्वैः स्वैर्दुष्टाः प्रदूषणैः ॥३॥ आमाशयं प्रविश्याम मनुगम्य पिधाय च । स्रोतांसि पक्तिस्थानश्च निरस्य ज्वलनं वहिः । सह तेनाभिसर्पतस्तर्पतः सकलं वपुः । कुर्वतो गात्रमत्युष्णं ज्वरं निर्वर्तयति ते ५ ॥ 'स्रोतविधात्प्रायेण ततः स्वेदो न जायते ।
अर्थ - वातादि दोष अपने अपने प्रको
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I
+ हाथी घोडे गौ पक्षी आदि में ज्वरके भिन्न भिन्न नाम होते हैं । यथा:- पाकलस्तु ययेभानामभितापो हयेषुच । गवां गौकर्णकश्चैव पक्षिणां मकरस्तथा । वांतादानामलकः स्या दुब्जेोष्विन्द्रमदः स्मृतः । भवधीषु तथा ज्योतिश्चूर्णको धान्यजातिषु । जलेषु नीलेका भूमौ चूषो न्हणां ज्वरो मतः । ऋते देवमनुष्येभ्यो नान्यो विषहते तु तम् । शेषाः सर्वे विपद्यते तिर्यग्योनौ ज्वरार्दिताः । कर्मणा लभते जंतुर्देवत्वं मानुषादपि । पुनश्चैव च्युतः स्वर्गान्मनु स्यमभिपद्यते । तस्मात्सदेवभावाश्च सहते मानवो ज्वरम् । अर्थात् हाथी के ज्वर को पाकल घोडेके ज्वर को अभितापक । गौ के ज्वरको गौकर्णक । इसी तरह पक्षियों में मकर, कु ते में अलर्क, मछलियों में इन्द्रमद, ओषधियों में ज्योति, धान्य में चूर्णक । जलमै नीलिका, भूमिमें चूप और मनुष्यों में ज्वर नाम से बोला जाता है ।
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