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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सितस्थान भाषाठीकासमेत । (६१३] रक्तं हि व्यम्लतां याति तच नास्ति मिश्री, ये सव द्रव्य खानेके लिये देवै, तथा न चाऽस्तिरुक् ॥ ७१॥ | खरैटी वा बृहत्यादि गणका काथ पीनेको दे अर्थ-रक्त के निकालने पर गुल्म की कफजगुल्म में उपाय ॥ जड कटजाती है, इसलिये पकने नहीं पाते | श्लेष्मजे वाऽमयेत्पूर्वमवम्यमुपवासयेत् ॥ है, किंतु नष्ट होजाते हैं, क्योंकि रक्तही तिक्तोष्णकटुसंसर्या वहि संधुक्षयेत्ततः । भीतर रहकर व्यम्ल होकर पक उठता हैं। हिग्वादिभिश्च द्विगुणक्षारहिंग्वम्लवेवसैः॥ इसलिये जव रक्त हीन रहेगा तो उससे वे. अर्थ-कफज़ गुल्ममें प्रथम वमन कराना दना भी उत्पन्न न होगी। चाहिये, परंतु यदि रोगी वमन के अयोग्य हृतदोष में घृतपान . | अर्थात् बालक, वृद्ध, कृश वा गर्भिणीहो तो हृतदोषं परिम्लानं जांगलैस्तर्पितं रसैः।। वमन न कराकर लंघन करावै । तत्पश्चात् समाश्वस्त सशेषार्ति सर्पिरभ्यासयेत्पुनः॥ | सम्यक लंधित होनेपर तिक्त, कटु और उ___ अर्थ-गुल्मरोगी दोषके निकलने पर ष्णबीर्य द्रव्यों के साथ सिद्ध की हुई पेया पारम्लान अर्थात् शिथिल और सुस्त हो तो । देकर रोगी की अग्निको वढावै । तदनंतर उसे जांगल जीवों के मांसरस से तृप्तकरै हिंग्यादि चूर्ण देवै परंतु इसमें उक्त परिमाण और अच्छी तरह से उसको आश्वासन दे से हींग, क्षार और अम्लेवेत दूना डाले। कर घीका अभ्यास करावै, जिससे वचा कफजगुल्म का संशोधन ॥ हुआ रोगभी शांत होजाय । निगूढं यदि वोनद्धं स्तिमितं कठिनं स्थिरम् ___पाकोन्मुख गुल्म में कर्तव्य ! आनाहादियुतं गुल्मं संशोध्य विनयेदनु । रक्तपित्तातिवृद्धत्वाक्रियामनुपलभ्य वा। । घृतं सक्षारकटुकं पातव्यं कफगुल्मिना। गुल्मे पाकोन्मुखे सर्वा पित्तविद्रधिवक्रिया . अर्थ-कफनगुल्म यदि निगूढ ( छिपा ___ अर्थ--रक्त और पित्तकी अत्यंत वृद्धि से हुआ ), ऊंचा, स्तिमित, कठोर, अचल वा अथवा चिकित्सा में उपेक्षा होने से यदि आनाहादि से युक्तहो तो वमन विरेचनादि गुल्म में पकने के लक्षण दिखाई देने लगें द्वारा शोधन करके रोगीको क्षार और कटु तो पित्तविद्रधि के समान चिकित्सा करनी द्रव्यों से संयुक्त घृतपान करावै । चाहिये । पित्तजगुल्म में उपाय। अन्य घृत। शालिगव्याजपयसा पटोली जांगलं घृतम्। सव्योषक्षारलवणं सहिंगुविडदाडिमम् ।। धात्रीपरूषकं द्राक्षौ खर्जूरं दाडिमं सिताम् | कफगुल्मं जयत्याशु दशमूलशृतं घृतम् । भोज्य पानेऽबुबलया बृहत्याद्यैश्च साधितम अर्थ-त्रिकुटा, जवाखार, नमक, हैं।ग, ___ अर्थ-गौ वा वकरी के दूध के साथ शा- | विडनमक और अनार इनको पीसकर दशलीचांवलों का भात, पर्वल, जांगलमांस,घृत, मूल के काथमें मिलाकर घी पकौव, यह धी आंवला, फालसा, दाख, खिजूर, अनार, कफजगुल्म को शीघ्र शांत कर देता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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