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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मष्टांगहृदय । अ०१४ भल्लातक घृत। | यथोक्तां घटिकां न्यस्येद्ग्रहीतेऽपनयेच ताम् भल्लातकानां द्विपल पंचमूलं पलोन्मितम् ॥ वस्त्रांतरं ततः कृत्वा छिद्यांदूगुल्म प्रमाणवित् अल्प तोयाढके साध्यं पावशेषेण तेन च। | विमार्गाजपदादशैर्यथलाभं प्रपीडयेत् । तुल्यं घृतं तुल्यपयो बिपचेदक्षसंमितः ॥ प्रमृज्यादूगुल्ममेवैकं न त्वंत्रहृदयं स्पृशेत् विडंगहिंगुसिंधूत्थयावशूकशीबिडैः। | अर्थ-स्नेहन और स्वेदन से गुल्म के सदीपिरास्नायष्टयावषग्रंथाकणनागरैः ॥ शिथिल होनेपर उसके उपर घटिका यंत्र एतद्भल्लातकघृतं कफगुल्महरं परम् । प्लीहपांड्वामयश्वासग्रहणीरोगकासनुत् ॥ स्थापित करै । जव गुल्म गृहीत होजाय तब अर्थ-भिलावा दो पल, लघुपंचमूल एक घटिका को हटाले । तब गुल्मको कपडे से एक पल, इनको एक आढक जलमें पकावै, ढककर सूच्यादि से विदीर्ण करदे । तदनंतर चौथाई शेष रहने पर उतार कर छानले, विमार्ग, अजपद वा आदर्श इन यंत्रोंमें से फिर इस काढेमें काढेके समान घी और दूध गुल्मको पीडन करके ोछ डाले । तथा अंत्र. मिलावै । और बायविडंग, हींग, सेंधानमक, और हृदयका स्पर्श भी न करे । जवाखार, कचर, बिडनमक, चीता, रास्ना, कफगुल्ममें प्रलेपादि । मुलहटी, वष, पीपल, और सोंठ प्रत्येक एक तिलैरंडातसीवजिसर्षपैः परिलिप्य च । श्लेष्मगुल्ममयस्पात्रैः सुखोष्णैः स्वेदयेत्ततः एक तोले पीसकर मिलाकर पकावै । यह अर्थ-कफज गुल्मके ऊपर तिल, अरंडके भल्लातक घृत कफजगुल्म को नष्ट करदेता वीज, अलसी वा सरसों का लेप करके थोडा हा तथा प्लाहा, पाडुराग, श्वास, महणा, गरम करकरके लोहेके पात्रसे स्वेदन करे । और खांसीको भी दूर करदेता है। कफगुल्ममें शोधन। - स्वेदनबिधि । | एवं च विसृतं स्थानात् कफगुल्मं विरेचनैः ततोऽस्य गुल्मे देहे च समस्ते स्वेदमाचरेत् सनेहैस्तिभिश्चैनं शोधयेहशमूलकैः " अर्थ-घृतपानके पीछे गुल्म तथा संपूर्ण अर्थ-ऊपर लिखी क्रियासे कफ गुल्मके देहमें स्वेदन करना चाहिये । अपने स्थानसे चलित होजाने पर स्नेहयुक्त स्नेहस्वेदन को उत्कृष्टता। विरेचन, और दशमूल की वस्तिका प्रयोग सर्वत्र गुल्मे प्रथम नेहस्वेदोपपादिते।। करके शुद्ध करै । या क्रिया क्रियते याति सा सिद्धिं न विरूक्षिते। मिश्रित स्नेह । अर्थ-सब प्रकार के गुल्मरोगों में प्रथम पिप्पल्यामलकद्राक्षाश्यामाद्यैः पालिकैः पचेत् । स्नेहन और स्वेदन कर्म करके जो क्रिया की एरंडतेलहविषोः प्रस्थौ पयसि षड्गुणे जाती है वह सिद्धि होजाती है, किंतु विरू सिद्धोऽयं मिश्रकः नेहो गुल्मिनां संसनं क्षित गुल्ममें क्रिया की सिद्ध नहीं होती है। हितम् । गुल्मके शिथिल होनेपर कर्तव्य । | वृद्धिविद्रधिशलेषु वातव्याधिषु चामृतम् निग्धस्विभशरीरस्य गुल्मे शैथिल्पमागते । अर्थ-पीपल, आमला, दाख और श्या For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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