SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 935
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८३८) मष्टांगहृदय। हैं, तथा जिह्वा शीतलता को सहन नहीं | को उत्पन्न करता है । यह अर्बुद फटकर, कर सकती है, तथा भारी, फटीहुई, और छिच होकर और मृदित होकर बढ जाता है। कांटों से व्याप्त होजाती है । इस रोगमें | सानिपातिक मुखपाक । रोगी बडी कठिनता से मुखफाड सकता है। मुखपाको भवेत्साः सर्वैः सर्वाकतिर्मलैं: ऊर्ध्वगद । ___ अर्थ-वातादि संपूर्ण दोष और रक्तके अधः प्रतिहतो वायुरझेगुल्मकफादिभिः । प्रकोपसे जो मुखपाक होता है वह वातादि यात्यूल वक्रदोर्गध्यं कुर्वनगदस्तु सः । संपूर्ण दोषों के लक्षणों से युक्त होता है । अर्थ-अर्श, गुल्म और दूषित कफादि ___मुखदुर्गधि । द्वारा वायु नीचे को प्रतिहत होकर मुखमें पूत्यास्थता च तैरेव दंतकाष्ठादिविद्विषः । दुर्गन्धि पैदा करता हुआ ऊपर को उठता ___ अर्थ-जो मनुष्य दंतकाष्ठादि अर्थात् है । इसे ऊर्ध्वगद कहते हैं। दांतन आदिको व्यवहार में नहीं लाते हैं पित्तनमुखाक के लक्षण । उनके मुखमें इन्ही वातादि दोषोंद्वारा दुर्गन्धि मुखस्य पित्तजे पाके दाहोषे तिक्तवता । पैंदा होजाती है। क्षारोक्षितक्षतसमा ब्रणाः रोगांकी संख्या । अर्थ-पित्तज मुखपाकरोग में मुखमें दाह, ओष्ठे गंडे द्विजे मूले जिव्हायां तालुके गले संताप, कडवापन और क्षार से जले हुए | | बके सर्वत्र चेत्युक्ताः पंचसप्ततिरामयाः । एकादशैको दश च त्रयोदश तथा च षट् । घावके समान घाव होजाता है । अष्टावष्टादशाष्टौ चक्रमात् रक्तज मुखपाक। ___ अर्थ-ओष्ठमें ग्यारह, गंडदेशमें, एक, तद्वञ्चरक्तजे ॥ ६१॥ दातों में दस, दांतों की जडमें तेरह,जीम __ अर्थ रक्त ज मुखपाक में पित्तजमुखपाक में छः, तालमें आठ, गलेमें अठारह, और के से लक्षण होते हैं। मुख आठरोग होते हैं। इस तरह सब कफजमुखपाक । मिलकर मुखसंबंधी ७५ रोग हैं | अब इनमें कफजे मधुरास्यत्वं कंडूमत्पिच्छिलव्रणाः से जो जो रोग असाध्य हैं उनका वर्णन अर्थ-कफ जमुखपाकरोग में मुखमें मीठा- | पन तथा खुजली से युक्त गिलगिला घाव | असाध्य रोगोंका वर्णन ॥ होजाता है। तेष्वनुपक्रमाः। कफज अर्बुद । करालो मांसरक्तोष्ठावर्बुदानिजलाद्विना । मंतःकपोलमाश्रित्य श्यावपांडु कफोर्वदम। कच्छपस्तालुपिटिका गलौघःसुषिरो महान् कुर्यात्तत्पाटितं छिन्नं मृदितं च विवर्धते । स्वर स्वरघ्नोर्ध्वगदः श्यावः शतघ्नविलयालसाः ' अर्थ-बदा हुआ कफ कपोलस्थल का नाड्योष्ठकोपोनिचयात्रतात्सर्वश्चरोहिणी | दशने स्फुटिते दंतभेदः पक्कोपजिव्हिका । आश्रय लेकर श्याव और पांडवर्ण के अर्बुद | गलगंडास्वरभ्रंशःकृच्छोच्छवासोऽतिवत्सर ब"असा करते है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy