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. अ. २१
उत्तरस्थान भाषायीकासमेछ।
(८३७ )
पूतिपूयनिभनावी श्ववथुर्गलविद्रधिः। । वृद्धस्तालुगले लेपं कुर्याच मधुरास्यताम् । __ अर्थ-सर्वकंठव्यापी जो सूजन होती अर्थ--कफज गलगंड कठोर, त्वचा के है, उसे गलविद्रधि कहते हैं । यह रोग समान वर्णवाला, छूने में ठंडा और भारी शीघ्र पैदा होकर शीघ्न पक जाता है । इस होता है । यह बढकर तालु और गले में में दर्द बहत होता है और सडी हुई राध, लिहसाबट और मुख में मधुरता करता है। सी निकलती है।
मेदोगलगंड। गलार्बुद रोग।
मेदसःश्लेष्मबद्धानिवृद्धयोःसोऽनुविधीयते जिहावसाने कंठादावपाकं श्वयधुं मलाः । | देहं वृद्धश्च कुरुतं गले शब्दस्वरेऽल्पताम् । जनयंति स्थिरं रक्तं नीरुजं तद्लार्बुदम् । अर्थ- मेद से उत्पन्न हुआ गलंगड, ___ अर्थ-वातादि दोष के कारण जीव के | कफज गलगंड के लक्षणों से युक्त होता है अंतिम भाग में कंट के ओर पास पाक से देह के घटने और बढ़ने से यह भी घट रहित, कठोर, रक्तवर्ण और वेदनारहित बढ जाता है । मेदोज गलगंड बढकर गले जो सूजन उत्पन्न होती है, उसे गळाद । में शब्द और स्वर में अल्पता करता है। कहते हैं।
श्लेष्मगलगंड । गलगंड रोग।
श्लेष्मरुद्धाऽनिलगतिः शुष्ककंठो हतस्वरः। पवनश्लेष्ममेदोभिगलगंडो भवेद्वहिः। ताम्यन्प्रसक्तंश्वसितियेन स स्वरहानिलात् वर्धमानः स कालेन मुष्कवलंबते निरुक् । अर्थ-दूषित कफद्वारा वायुकी गति रुक ___ अर्थ-बायु कफ और मेद के कारण | जाने पर मनुष्य शुष्ककंठ, हतस्वर और गले के बाहर गलगंड नामक रोग होता
वर्द्धित होकर निरंतर श्वास लेने लगताहै । है, काल के क्रम से बढकर यह अंडकोष यह वातप्रकोपज व्याधि स्वरघ्न कहकी तरह झूलने लगता है, इसमें दर्द नहीं
लाती है। होता है।
मुखपाक का लक्षण । वातगलगंड रोग ।
करोति वदनस्यांतर्बणान्सर्घसरोऽनिलः । कृष्णोऽरुणो वा तोदाढयः स वातात्कृष्ण संचारिणोऽरुणानरूक्षानोष्ठौताम्रौचलत्वची
राजिमान् । जिव्हाशीतासहागुर्वीस्फुटिताकंटकाचिता वृद्धस्तालुगले शोषं कुर्याश्च विरसास्यताम् |
| विवृणोति च कृच्छेण मुखपाको मुखस्य च __अर्थ-वातिक गलगंड कालावा लाल,
। अर्थ-दूषितहुई वायु मुखके भीतर इधर काले रंग की सिराओं से व्याप्त होता है
उधर धूमती हुई मुखपाक नामक रोगको यह बढकर तालु और गले की सुखा देता
उत्पन्न करती है । इससे मुखके भीतर सब है और मुखको विरस कर देता है।
जगह लाल रंगके रूक्ष संचारी ब्रण पैदा __कफज गलगंड ।
होजाते हैं और दोनों ओष्ट तावे के रंगके स्थिरः सवर्णः कंडूमान् शीतस्पर्शो गुरुः |
कफात्। सदृश और चलायमान त्वचावाले होजाते
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