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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.१४ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (६.७ emainsema - तथा अपस्मार, गर, उन्माद, मूत्राघात और प्रसनयावा क्षीरार्थःसुरया दाडिमेन वा २६ घातरोग भी जाते रहते हैं। घृते मारुतगुल्मघ्नः कार्यों दध्नः सरेण वा ॥ अन्य घृत । ___ अर्थ-जो. षट्पल घृत राजयक्ष्मामें कहा त्र्यूषणत्रिफलाधान्यचविकावेल्लाचित्रकैः । गया है वहभी हित है, अथवा दूधके बदले कल्कीकृतै त पक्कं सक्षीरं पातगुल्मनुत्। में प्रसन्ना, वा सुरा, वा दाडिमका रस का अर्थ-गौका घी चार सेर, दूध ४ सेर । दही की मलाई डालकर सिद्ध किया हुआ. जल १६ सेर तथा त्रिकुटा, त्रिफला, धनियां | घी भी वातगुल्मनाशक होता है। चव्य, वायविडंग चीता इन सवको महीन वातजगुल्म में कफोद्वमन । पीसकर डालदे, यह पकाहुआ घृत वातगुल्म | वातगुल्मे कफो वृद्धो हत्वाग्निमचियदि॥ को नष्ट करदेता है। हल्लासं गौरवं तद्रां जनयेदुल्लिखेत्तु तम् । अन्य घृत। अर्थ-वातज गुल्ममें यदि कफ बृद्धिको तुला लशुनकंदानां पृथपंचपलांशकम् प्राप्त होकर जठराग्नि को नष्ट कर के अरुचि प्राप्त होकर पंचमूलं महच्चांबुभारार्धे तद्विपाचयेत्। । हल्लास, गौरव और तंद्रा को उत्पन्न करै पादशेषं तदर्धन दाडिमस्वरसं सुराम् तो उस कफको वमन द्वारा निकाल देवे । धान्याम्लं दधि चाऽऽदाय पिष्टांचापला । शूलादि में क्वाथादि । शकान् । त्र्यषणत्रिफलाहिंगुयवानाचव्यदीप्यकान् । शूलानाहविबंधेषु ज्ञात्वा सम्मेहमाशयम् : सॉम्लवेतससिंधूत्थदेवदारूपचेद्धृतात् । | नियूहचूर्णवटका प्रयोज्या घृतभेषजैः । नियूह तैःप्रस्थं तत्परं सर्ववातगुल्मविकारजित् २५ | अर्थ-गुल्मरोग में यदि शूल, आनाह अर्थ-लहसन एक तुला, वृहत्पचमूलप्रत्येक | और मलकी विवद्धता हो और कोष्टमें धृतपांच पल इनको दस तुला जलमें पकावै प्लुत औषधों के सेवन से स्निग्धता मालूम चौधाई शेष रहनेपर उतार कर छानले. हो तो घृतपाक में कही हुई औषधों द्वारा इसमें अनार का रस, सुरा. कांजी, दही तयार किया हुआ काढा, चूर्ण और गोलि. प्रत्येक १२५ पल डाले तथा त्रिकटा. त्रि- यो काम में लावै ! फला, हींग, अजवायन, चब्य, अजमोद, । अन्य चूर्ण । अम्लवेत, सेंधानमक, देवदारू, प्रत्येक आ- | कोलदाडिमधर्माबुतक्रमद्याम्लकांजिकैः धा आधा पल, घी एक प्रस्थ इन सबको | मंडेन वा पिवेत्प्रातश्चूान्यन्नस्य वा पुरः। पाकविधि के अनुसार पकाकर सेवन करने ___ अर्थ-वेरका रस, अनारका रस, सूर्य से सब प्रकार के वातगुल्मों के विकार दूर की किरणों से तप्त जल, तक्र, मद्य, खट्टी होजाते हैं। कांजी और मंड इनमें से किसी के साथ वातगुल्मनाशक घृत । घृतपाक में कही हुई औषधोका चूर्ण प्रातःषट्पलं वा पिवेत्सपिर्यदुक्तं राजयक्ष्मणि। | काल वा भोजन करनेसे पहिले पान करावे। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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