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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६०८) अष्टांगहृदप । कफ वातजगुल्ममें वटिका। धर्म, आध्मान, श्वास, खांसी और अग्निचूर्णानि मातुलुंगस्य भावितान्यसकृद्रसे। | मांद्य इन सव रोगों को नष्ट कर देता है । कुति कार्मुकतरान बटकान कफवातयोः॥ ____लवणादि चूर्ण । अर्थ-कफवातज गुल्ममें घृतपाक की लवणयवानीदीप्यक औषधों के चूर्ण में बिजौरे के रसकी बार कणनागरमुत्तरोत्तरं वृद्धम् । बार भावना देकर गोलियां बनाकर दीजाती सर्वसमांशहरीतकी है, ये गोली तत्काल लाभकारक होती हैं । चूर्ण वैश्वानरः साक्षात् ॥ ३४ ॥ अर्थ-नमक, अजबायन, अजमोद, पी. हिंग्वादि चूर्ण। पल, सोंठ इन सब द्रव्योंको उत्तरोत्तर एक । हिंगुवचाविजयापशुगंधा एक भाग बढाकर लेवे और इन सबके सदाडिमदीप्यकधान्यकपाठाः। पुष्करमूलशठीहपुषाग्नि मान हरड लेकर कूट पीसकर चूर्ण बनालेयै क्षारयुगत्रिपटुत्रिकटूनि ॥ ३१ ॥ यह लवणादि चूर्ण साक्षात् अग्निरूप है, साजाजिचव्यं सहतित्तिडीकं अर्थात् अग्निके बढाने में प्रधान है । सवेतसाम्लं विनिहति चूर्णम् हृत्पार्श्वबस्तित्रिकयोनिपायु . हिंग्याष्टक चूर्ण । शूलानि वाय्बामकफोद्भवानि ॥ ३२॥ | त्रिकटकमजमोदा सैंधवं जीरके द्वे कृच्छ्रान् गुल्मान्वातविण्मूत्रसंग समधरणधुतानामष्टमो हिंगुभागः । कंठे बंध हृदग्रहं पांडुरोगम् । प्रथमकवलभोज्यः सर्पिषा चूर्णकोऽयं अन्नाश्रद्धाप्लीहदु महिमा जनयति भृशमग्निं वातगुल्मं निहति ॥ वर्माध्मानश्वासकासाग्निसादान् ॥ अर्थ-त्रिकुटा, अजमोद, सेंधानमक,का अर्थ- हांग, बच, हरड, अजमोद, अ- | लाजीरा, सफेदजीरा, इन सब द्रव्यों को समान नारका छिलका, अजवायन, धनियां, पाठा भाग और आठवां भाग हींग इनका चर्ण पुष्करमूल, कचूर, हाऊवेर, चीता, दोनों- बनाकर इस हिंग्वाष्टक चूर्ण को भोजन करते खार, तीनों नमक ( सेंधा, बिड, और का- समय धीमें मिलाकर प्रथम प्रासके संग खाला ) त्रिकुटा, कालाजीरा, चव्य, इमली, लेवै, यह अग्निको बढाता है और वातगुल्म और अम्लवेत, इन सब द्रव्यों से बनाया | को नष्ट करता है । कोई कोई यह भी अर्थ हुआ यह हिंग्यादि चूर्ण वायु, आम और | करते हैं कि धरण पलका दसवां भाग होता कफसे उत्पन्न हुए हृतशूल, पसली का दर्द । है अर्थात् पांच माशेके लग भग । त्रिकुटादि बस्तिका दर्द, त्रिकका दर्द, योनिका दर्द, उक्त द्रव्योंको एक एक धरण और हींग ध. गुदाका दर्द तथा गुल्मरोग, अधो बायु, वि- | रण का अष्टमभाग | इस चूर्णको प्रथम प्रा. ष्टा और मूत्र का बिबंध, कंठरोग, हृद्ग्रह, | सके साथ सेवन करे। हींग अग्निपर फुलापांडुरोग, अन्नमें अरुचि, प्लीहा, अर्श,हिमा, | कर डाली जाती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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