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अष्टांगहृदये।
अ.१८..
VIDEFERRED
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अनुसार कभी तापस्वेद, कभी उपनाहस्वेद | वयव की अस्थियों में स्थित होगये हैं उन और कभी ऊष्मास्वेद का प्रयोग करै । को स्नेहनकर्म से स्निग्ध करके तथा स्वेदन
अग्निरहित स्वेद । कर्म से पतले करके कोष्ठ में लाकर स्वेदो हितस्त्वनानेयो बाते मेदः कफावृते। वमन विरेचनादि रूप शुद्धि से वाहर निकाल निवातं गृहमायासो गुरुप्रावरणं भयम् ।२८।
देना उचित है। उपनाहाहवक्रोधभूरिपानं क्षुधातपः।
___ इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां अर्थ-मेद और कफावृत वातरोग में
सप्तदशोऽध्यायः । अनाग्नेय अर्थात् अग्निरहित स्वेद हितकारी होता है । अनाग्नेय स्वेद के लक्षण यह हैं---वातरहित घरमें बैठकर पसीने लेना, अष्टादशोऽध्यायः। तथा व्यायाम, कंबल आदि भारी वस्त्र
-~- meओढना, भय, स्निग्ध, उष्ण और कोमल
अथाऽतो वमनविरेचनविधिमध्यायं व्याख्या चमडे की पट्टी बांधकर उपनाह स्वेद लेना,
स्थामः । संग्राम, क्रोध, अत्यन्त मद्यपान, क्षुधा, और
___ अर्थ-अब हम यहां से बमन और वि. धूप । ये सब अग्निरहित स्वेद हैं।
रेचन विधि नामक अध्याय की व्याख्या ___ उपनाह दो प्रकार का होता है एक |
करेंगे। आग्नेय, दूसरा अनाग्नेय । पूर्वोक्त बच और
। वमनविरंचन विधि । किण्वादि द्वारा जो उपनाह दियाजाता है
" कफे विदध्याद्वमनं संयोगेवा कफोल्बणे । वह आग्नेय होता है तथा स्निग्धोष्णवीर्य, | तद्विरेचनं पित्ते मृदु और दुर्गन्धिरहित चमडा वा इसके ___ अर्थ-कफ की कमी होने पर विरेचन अभाव में वातनाशक अरंडके पत्तों द्वारा अच्छी तरह हो सकता है, इसलिये प्रथम जो उपनाह दियाजाता है बह अनाग्नेय वमन से आरंभ करके कहते हैं कि कफ रोग उपनाह कहलाता है।
में कफाधिक्य में वा कफ के संयोग ( वात स्वेदनका मुख्य कर्म ।
कफ, पित्तकफ या वातपित्तकफ ) में वमन सेहक्लिन्नाः कोष्ठगा धातुमा वा
कराना चाहिये । इसी तरह पित्तो वा पित्तास्रोतोलीना ये च शाखाऽस्थिसंस्थाः।। धिक्य में अथवा पित्त के संयोग ( वातपित्त दोषाः स्वेदैस्ते द्रवीकृत्य कोष्ट कफपित्त वा वातकफपित्त ) में विरेचन देना
नीताः सम्बक्शुद्धिभिनिर्दियते ॥ २९॥ उचित है। - अर्थ-जो जो दोष कोष्ठ और धातुओं
वमनोपयोगी रोगी। में स्थित हैं, अथवा रसादि वाहिनी नालियों
विशेषेण तु वामयेत्।। में चले गये हैं अथवा हाथ पांव आदि देहा- | नबज्वरातिसाराधः पित्तासृग्राजयक्ष्मिणः।
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