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अ० १८
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१५७)
कुष्ठमेहाऽपचीग्रंथिश्लीपदोन्मादकासिनः।। | विष से कष्ट पहुंचा हो, अथवा अजीर्ण वा श्वासहल्लासवीसर्पस्तन्यदोषोर्वरोगिणः। विरुद्ध भोजन से दोष उत्पन्न हुआ हो तो अर्थ-नवज्वर, अतिसार, अधोगामी [ गुदा
वमन कराना ही चाहिये । द्वारा निकलने वाला ] रक्तपित्त, राजयक्ष्मा, | उक्त रोगियों को गंभषादि निषेध। कोढ, मेह, अपची, ग्रंथि, श्लीपद, उन्माद, प्रसक्तवमथोः पूर्व प्रायेणामज्वरोऽपि च । कास, श्वास, हल्लास, [जी मिचलाना ] वि. धूमांतैः कर्मभिर्वाः सर्वैरेव त्वजीर्णिनः ७ सर्प, स्तन्यरोग, और ऊर्ध्व जत्रुगत रोग। अर्थ-पूर्वोक्त श्लोक में प्रसक्तवमथु (निरं इन रोगों से पीडित मनुष्य को विशेष रूप । तरवमनकारी ) इस शब्द से पहिले गर्भवती से वमन कराना चाहिये ।
स्त्री से लेकर दुर्बल पर्यन्त जो ग्यारह प्रकार अवमनीय रोगी। के रोगी लिख गये हैं उन को तथा आम अवम्या गर्भिगी रुक्षः क्षुधितो नित्यदुःखितः | ज्वरवालों को जो वमन कराने का निषेध बालवृद्धकृशस्यूलद्रोगिक्षतर्वलाः। किया गया है वह इतना ही नहीं है, किन्तु प्रसक्तवमथुशीहतिमिरक्रिमिकोष्ठिनः ॥ ४॥
इनको प्रायः स्नेह, स्वेद, बमन, विरेचन ऊर्ध्वप्रवृत्त बाय्यत्र इत्तबस्तिहतस्वराः।। मूत्राघात्युदरी गुल्मी दुर्वमोऽत्यनिरर्शसः५, वस्तिकर्म, नस्य धूमपान ये कर्म भी कराना उदावर्तभ्रमाऽष्ठीलापार्यरुग्वातरोगिणः । . उचित नहीं है, तथा गडूपधारणादि विधिका
अर्थ-गर्भवती स्त्री, रूक्ष प्रकृतिवाला मनु- | भी निषेध है दीर्घ काल वालें अजीर्ण रोगी ज्य, भूखा, नित्यदुखी, बालक, वृद्ध, कृश, धूमप्रहण, गंडूषधारण, तथा तर्पणादि सब स्थूल, हृद्रोगी, क्षतरोगी, दुर्बल,निरंतर वमन कामों का ही निषेध है । आठमासकी गर्भकारी, प्लीहा वाला, तिमिररोगी, क्रमिगेगी, वती स्त्री को निरूहणवस्ति देना न चाहिकोढी जिसके शरीर में वातरक्त ऊपर को | ये । जिसने तत्काल भोजन किया हो ऐसे जाने लग गया हो, जिस को बस्ति दीगई। ज्वर पाले रोगी को और तत्काल के अर्जीहो, जिसका स्वर भंग होगया हो, तथा मूत्रा, णवाले को वमन करने का निषेध नहीं है घातवाला, उदररोगी, गुल्मरोगी, कष्ट से वमन इसलिये मूल श्लोक में 'प्रायः' शब्द का प्र. होनेवाला रोगी,तीव्रजठराग्निवाला, भर्शरोगी योग किया गया है । उदावर्तवाला, भ्रमरोगी, अष्टीलानामक रोग- विरेचन के योग्य रोगी। वाला, पसली के दर्द वाला और वात रोगी विरेकसाध्या गुल्मार्टीविस्फोटव्यंगकामला: इतने रोगी वमनकराने के योग्य नहीं होते हैं। जीर्णज्वरोदरगरच्छर्दिप्लीहहलीमकाः८॥ विष में वमन विधान ।
विद्रधिस्तिमिरं काचः स्यंदा पक्वाशयव्यथा
योनिशुक्राशयारोगा कोष्ठगा कृमयो ब्रणाः॥ ऋतेविषेगराजर्णिविरुद्धाऽभ्यवहारतः।६।
वातानसूर्ध्वगरकंमूत्राघातः शकुद्ग्रहः। - अर्थ-ऊपर जो वमन के अयोग्य रोगी | वम्याश्च कुष्ठमहाद्याः - कहे गये हैं उव को यदि स्थावर वा जंगम अर्थ-गुल्म, अर्श, विस्फोटक, व्यंग,
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