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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५८) अष्टांगहृदय । अ० १८ कामला, जीर्णज्वर, उदररोग, विषरोग, ब- | न देना चाहिये । सशल्य क्षत में विरेचन मन, प्लीहा, हलीकम, विद्रधि तथा तिमिर, देने से वायु का कोप बढता है । आस्थाकाच, और अभिष्यन्द नामक नेत्ररोग, प- पनवस्ति वाले को विरेचन न दे क्योंकि काशय, व्यथा, योनिरोग, शुक्रस्थानक रोग, इससे उसको निर्बलता बढ़ती है । क्रूरकोष्ठ कोष्टरोग, क्रमिरोग, व्रण, बातरक्त, मूत्राघा- वाले को विरेचन देने से कुछ असर नहीं त और मलबद्धता ये सब रोग विरेचनसा- | होता है और कोष्ठस्थ देष गुदा द्वारा बाहर ध्य हैं, तथा " वमनोपयोगी प्रकरण' में नहीं निकलते हैं तथा वहां रुककर हृदशूल जो कुष्ठ, मेह, अपची, अंन्थि, इलीपद, संधिभेद, आनाह, वमन, मूर्छा, आदि रोगों उन्माद, कास, श्वास, हल्लास, विसर्प, स्त- को पैदा करते हैं । इसलिये कृरकोष्ठवाले न्यदोष और ऊर्ध्वजत्रुगतरोग कहे गये हैं, को विरेचन न देना चाहिये । इसी तरह इन में भी विरेचन दिया जाता है। अति स्निग्ध और शोषरोगियोंको भी विरेचन विरेचनके अयोग्य गेगी। न देवै । न तु रेच्यो नवज्वरी ॥१०॥ वमन करने की विधि । अल्पाऽन्यधोगपित्तालक्षतपायवातसारिणः अथ साधारणे काले स्निग्धस्विनं यथाविधि सशल्यास्थापितफरकोष्ठाऽतिस्निग्धशोषिणः ध्वोवम्यमुक्लिष्टकर्फमत्स्यमापतिलादितिः अर्थ-नवीनज्वरबाले को विरेचन न दे. निशांसुप्तं सुजीन्न पूर्वान्हे कृतमंगलम् । ना चाहिये क्योंकि ऐसे रोगी को विन निरन्नमीषस्निग्धंवापेययापीतसर्पिषम् १३ वृद्धवालावलक्लीवभीरूद्रोगानुरोधतः । देने से अपक्क दोष बाहर निकल आते हैं आकण्ठ पायितान्मद्यं क्षीरमिक्षुरसंरसम् ॥ और वायु कुपित हो जाता है । यक्ष्मावाले यथाविकारविहितां मधुसैंधवसंयुताम् । को अवस्थाके अनुसार मृदु विरेचन कहा है | कोष्ठ विभज्य भैषज्यमात्रां मंत्राभिमंत्रितास और इसी तरह अतिसार वाले को भी प्र. ब्रह्मदक्षाविरुद्रेद्रभूचन्द्रार्काऽनिलाऽनलः । ऋषयःसौषधिग्रामाभूतसंघाश्च पांतु वः ।। करणनुसार विरेचन कहा है पर नवज्वरवाले रसायनमिवर्षीणाममराणामवाऽमृतम् । को थोडा विरेचन भी न देना चाहिये । सुधेवोत्तमनागानां भैषज्यामिदमस्तुते १७॥ जिनको मंदाग्नि रोग हो उनको विरेचन देने ॐनमोभगवते भैषज्यगुरवे वैदूर्यप्रमराजाय. से वह औषध के वेग को नहीं सह सकता तथागतायाऽहेते सम्यकसंबुद्धाय तद्यथा। ओ.भैषज्येभैषज्येमहाभैषज्येसमुद्तेस्वाहा। है । अधोमार्गगामी रक्तपित्तवाले को बिरेचन प्राङ्मुखं पाययेत्पतिंमुहूर्तमनुपालयेत् । न दे क्योंकि अत्यन्त वहने से बहुधा ग्राण तन्मना जातहल्लासप्रसेकश्छर्दयेत्ततः१८ नाश होजाता है । गुदाके घाव में विरेचन अंगुलिभ्यामनायस्तोनालेनमृदुनाऽथवा । | गलताल्वरुजन्वेगानप्रवृत्तान् प्रवर्तयन् १९ अयोग्य है क्योंकि इससे प्राणनाशिनी पीड़ा | प्रवर्तयन् प्रवृत्तांश्च जानुतुल्यासने स्थितः । होती है । अतिसार वाले को भी विरेचन | अर्थ-इस तरह पूर्वोक्त रीति से रेच्य For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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