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अ० १८
( १५९ )
और अरेच्य का विचार करके साधारण ऋतु में श्रावण मास के प्रारंभ में स्नेह और स्वाध्याय में कही हुई विधि के अनुसार स्नेहन और स्वेदन कर्म करने के पीछे रोगी को पूर्वदशा की ओर मुख करके बैठा देवै नीचे लिखे हुए मंत्र से अभिमंत्रित करके औषध की मात्रा पान कराके वमन करावे ।
वा नहीं और उसी में ध्यान लगाये रक्खे। फिर वमनका वेग और मुखस्त्राव होने पर घुटने तक ऊंची चौकी पर बैठकर गले और तालु में पीडा न पहुंचे ऐसी रीति से अनायास भावमें दो उंगली वा कमल की कोमल नाल आदि गले में धीरे धीरे फेरे जिससे वमन का अनुपस्थित वेग प्रबृत होजाय और उपस्थित अच्छी तरह प्रवृत होकर वमन होने लगे ।
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मन कराने के पहिलं दिन मछली, उड़द की दाल वा तिलादि का भोजन उस मनुष्यको कराके जिसे दूसरे दिन प्रातः काल वमन करानी है उसक कफको अपने स्थान से चलायमान करदे । वमनीय व्यक्ति को वमन की पहिली रात्रि में गहरी निद्रा और पहिले दिन का खाया हुआ अन्न पचजाने की बडी आवश्यकता है । फिर अगले दिन प्रातः काल के समय स्वस्तिवाचनादि मंगलाचरण करै । वमन के दिन आहार न करे कि - न्तु अबस्था के अनुसार पेया के साथ थोड़ा घृत पान करे । वमन बाला मनुष्य यदि वृद्ध, बालक, निर्बल क्लीव वा भीरु हो तो रोग के अनुसार प्रथम मद्य, दुग्ध, ईख का रस वा मांसरस कंठपर्यन्त अर्थात् अतिशय पान करावें । फिर मृदु और मध्य कोष्ठका विचार करके रोग के अनुसार औषध की मात्रा शहत और सेंधानमक मिमिलाकर पान करावे । औषध को अभिमंत्रित करने का मंत्र "ब्रअदक्षाश्वि" से लेकर 'स्वाहा' पर्य्यन्त है । औषध पानकराने के पीछे दो घडी तक इस बात की प्रतीक्षा करे कि वमन होती है।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
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वमन करने वाले की परिचर्या । उभे पार्श्वे ललाटं च वमतश्चाऽस्य धारयेत् ॥ प्रपीडयेत्तथा नाभि पृष्ठं च प्रतिलोमतः ।
अर्थ- वमन करने वाले मनुष्य की दोनों पसली, और ललाट को पकडे रहे और प्रतिलोमरीति से अर्थात् नीचे से ऊपर को नाभि और पीठ को मसलता रहे ।
दोषानुसार वमनविधि |
कफे तीक्ष्णोष्ण कटुकैः पित्ते स्वादुहिमैरिति । वमेत् स्निग्धाम्ललवणैः संसृष्टे मरुता कफे । पित्तस्य दर्शनं यावच्छेदो वा लष्मणो भवेत्
अर्थ - कफ में तीक्ष्ण, उष्ण और कटु द्रव्य द्वारा वमन करावे | पित्तमें मधुर और शीतल द्रव्य द्वारा, वात कफमें स्निग्ध, अम्ल और लवण द्रव्य द्वारा वमन करावे । जब तक वमन में पित्त आता रहै वा जब तक कफ निकलता रहै तब तक वमन कराना चाहिये ।
वमन के हीन वेगमें कर्तव्य | हीनवेगः कणाधात्रीसिद्धार्थलवणोदकैः । वमेत्पुनः पुनः
अर्थ - जिस मनुष्य को वमन अच्छी
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