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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० २ www.kobatirth.org कल्पस्थान भाषाटीकासमेत । प्लीहा, शोफ, गुल्म और विषरोगों में वमन के लिये हित है । आनूपमांसका प्रयोग | पृथक् फलादिषट्रकस्य क्वाथे मांसमनूपजम् कोशातक्या समं सिद्धं तद्रसं लवणं पिबेत् अर्थ -- मैनफलादे छः द्रव्यों में से किसी एक के काढ़े में आनूपमांस और इसके समान तोरई के साथ पाक करके उसमें से थोडा नमक मिलाकर वमनके लिये पान करे । अन्य प्रयोग | फलादि पिप्पलतुल्यं सिद्धं क्ष्वेडरसेऽथवा वेडक्वाथे पिवेत्सिद्धं मिश्रमिक्षुरसेन वा अर्थ--मैनफलादि छः द्रव्यों के बीज और उनके समान आनूप मांस को पीली तोरई के काढ़े के साथ पकाकर सेवन करै, अथवा इसी काढे में सिद्ध किया हुआ आ नूप मांसरस ईखका रस और नमक मिला कर सेवन करे । - कुटजका प्रयोग | कुटजं सुकुमारेषु पित्तरक्तकफौदये । ज्वरे विसर्पे हृद्रोगे खुडे कुठे च पूजितम् अर्थ--ऐसे सुकुमारों के लिये जो घमन कारक औषधों के वेगको न सह सकते हों उन्हें पित्त, रक्त और कफके उद्रेक में ज्वर में, विसर्पमें हृद्रोग में और कुष्टमें कुडाकी छाल के प्रयोग से वमन कराना हित है । अन्य प्रयोग | सर्वपाणां मधूकानां तोयेन लवणस्य वा । पाययेत्कौटजं वीजं युक्तं कुशरयाऽथवा४५ सप्ताहं वार्कदुग्धाक्तं तच्चूर्णपाययेत्पृथक् फलजीमूतकेक्ष्वाकुजीवंती जीवकोदकैः ४६ अर्थ- सरसों वा मुलहटी के काढ़े के ८७ ( ६८९ ) साथ अथवा नमक के जलके साथ अथवा कुटज वीज का चूर्ण करके सात दिन तक आक के दूध में भिगोकर इनके चूर्णको मैनफल, देवदाली, कटुतुंबी, जीवंती और जीवक इनके शनी के साथ पान करावे कुटज बीजों को इन्द्रजौ कहते हैं । मनमें अन्यान्य औषध | " वनौषधमुख्यानामिति कल्पदिगीरिता बीजेनानेन मतिमानन्यान्यपि च कल्पयेत् अर्थ - ऊपर वमनकारक औषधों में से प्रधान प्रधान औषधों का कल्प दिग्दर्शनमात्र वर्णन किया है, इसी प्रकारसे अन्यान्य मनोपयोगी औषधों की कल्पना करना चाहिये | इतिश्री मधुरानिवासि श्रीकृष्णलालकृत भाषाटीकान्वितायां अष्टांगहृदयसंहितायां कल्पस्थाने वमनकल्पः प्रथमोऽध्यायः । द्वितीयोऽध्यायः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir fursat विरेचन कल्पं व्याख्यास्यामः । अर्थ- - अब हम यहांसे विरेचन कल्प नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । निसोथका स्वरूप | कषायमधुरा रूक्षा विपाकेकटुका त्रिवृत् कफपित्तमश मनी रौक्ष्याच्चानिल कोपनी अर्थ - निसोथ कसीली, मीठी, रूक्ष, विपाक में कटु, कफ पित्त का नाश करने << For Private And Personal Use Only .
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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