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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३९८) - अष्टांगहरवा अ०१० अर्थ-कुपित हुआ वायु वातप्रमेह के | ग्ध मधुर और संतर्पण रूप औषध वायुको संपादन योग्य धातुओं को वस्तिके पास हितकारी हैं किन्तु रूस तीक्ष्णादि अपतर्पण लाकर और उन्हें नीचेको निकालकर उन रूप क्रिया प्रमेह को उपयोगी हैं । इसलिये धातुओं के क्षीण होनेर प्रमेह रोगों को इस विरुद्ध क्रिया के कारण वातज प्रमेह उत्पन्न करता है। असाध्य होते हैं। प्रमेहका साध्यासाध्य विभाग ॥ प्रमेहके सामान्य लक्षण । सोध्ययायपरित्याग्या मेहास्तेनैव तद्भवाः। सामान्य लक्षणं तेषां प्रभूताविलमत्रता । संमासमक्रियतया महात्ययतयाऽपि च ।६।। | अर्थ-प्रमाणसे अधिक मूत्रका निकलना __ अर्थ-कसे उत्पन्न हुए प्रमेह साध्य और मूत्रका रंग मैला हो ना ये दो सव होते हैं। क्योकि ये वायु, क्लेद, स्वेद, आदि | प्रकार के प्रमेहों में सामान्य रीतिसे होतेहैं । दूषण पदार्थ मात्रसे उत्पन्न होते हैं और इ प्रमेह के भेदोंकी कल्पना । न की क्रिया भी समान है क्योंकि कटुति- | दोषदृष्यावशेऽपि तत्संयोगविशेषतः।। | मूत्रवर्णादिभेदेन भेदो मेहेषु कल्प्यते। तादि जो जो औषध कफको शांत करती है । ___ अर्थ-सव प्रकार के प्रमेहों में यद्यपि उन्हीं औषधों द्वारा शरीर केलेदादि दृष्यपदार्थों दोष और दूष्य समानहैं तथापि पूर्वजन्मकृत की भी शांति होती है । इसलिये कफज प्र कर्मयश से दोष भौर दूष्योंके न्यूनाधिक्य मेह साध्य होता है। संयोग से अनेक भेद होजाते हैं और मूत्र पित्तज प्रमेह याप्य होते हैं. क्योंकि ये । के वर्ण गंध, रस, स्पर्शादि भेदसे भी प्रमे. सौभ्यधातु के क्षीण होनेपर वपु, केद, स्वेद | होंकी अनेक प्रकार की कल्पना कीगई हैं | आदि तथा रक्तको दूषित करके उत्पन्न हो | अव कफज प्रमेह के दस भेदोंका वर्णन ते हैं । और इनकी क्रिया भी विषम है क्यों | करते हैं । कि मधुरादि पित्तनाशक द्रव्य मेदवर्द्धक हो उदकमेह के लक्षण । ते हैं और जो कटुतिक्तादि द्रव्य मेदका ना | अच्छं वहु सितं शीतं निर्गधमुदकोपमम् । श करते हैं वे पित्तकारक हैं। इसी क्रिया मेहत्युवकमेहेन किंचिञ्चाविलपिच्छिलम् । की विषमताके कारण पित्तप्रमेह याप्य होते हैं ___अर्थ-उदकमेह में स्वच्छ, प्रमाण से | अधिक, सफेद, शीतल, गंधरहित, जलके . वातज प्रमेह असाध्य होतेहैं, क्योंकि सदृश, किंचित आविल और पिच्छिल मूत्र संपूर्ण धातुओंके क्षीण होनेसे इनकी उत्पत्तिहै । तथा इनका अत्यय भी महान हैं इक्षुमेहके लक्षण । अर्थात् वायु मज्जादि धातुओं को लेकर | इक्षो रसमिवात्यर्थ मधुरं चेक्षुमेहतः ॥९॥ महा अनिष्टकारी होजाताहै और कोई औ- अर्थ-इक्षुमेहमें प्रस्राव ( पेशाव ) ईख षध इसपर काम नहीं देती है, क्योंकि स्नि- | के रसके समान अत्यन्त मीठा होताहै । होताहै। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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