SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org (१८० ) अष्टांगहृदये । कोई आचार्य इसको संपूर्ण रोगों की चिकित्सा ही कहते हैं । इसी तरह दोषज और आगन्तुज संपूर्ण व्याधिओं के उत्पन्न करनेवाले रक्तकी औषधस्वरूप शिराव्यध ( फस्त खोलना ) को भी चिकित्सा का अर्द्धभाग वा संपूर्ण चिकित्सा कहते हैं । इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाठीकायां एकोनविंशोऽध्यायः । सा और एक ओर केवल वस्ति । कोई | शोफगंडकृामग्रंथि कुष्ठाऽपस्मारपीनसे । अर्थ - विरेचननस्य मस्तक के दर्द, जडता, श्लेष्मा, कंठरोग, सूजन, गंडरोग, कृमिरोग, ग्रन्थि, कुछ, अपस्मार और पीनस इन रोगों में हितकारी है । अपस्मार यद्यपि ऊर्ध्वजत्रुगत रोगों में नहीं है परन्तु विरेचन नस्यसे जाता रहता है इसलिये उसकी गणना की गई है । और भी ऐसे कितने ही रोग हैं जो ऊर्ध्वजत्रुगत न होने पर भी विरेचन नस्य दूर होते हैं, जैसे कफ प्रकोप, मुखकी विरसता, गंधक ज्ञान न होना आदि । विंशोऽध्यायः । अथाऽतोनस्यविधिमध्यायं व्याख्यास्यामःअर्थ - अब हम यहां से नस्यबिधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । नस्यसाध्य विकार 1 " ऊर्ध्वजत्रुविकारेषु विशेषान्नस्यमिष्यते । नासा हि शिरसो द्वारं तेन तद्वयाप्य हंति तान् अर्थ - जत्रुके ऊपरवाले भागों में जो जो रोग होते हैं उनमें नस्य विशेष हितकारी है । इसका कारण यह है कि नासिका मस्तक का द्वार है, नस्य इस नासिकारूपी द्वार से संपूर्ण मस्तक में व्याप्त होकर ऊर्ध्वजत्रुगत संपूर्ण रोगों को दूर कर देती है । नस्य के भेद | विरेचनं बृंहणं च शमनं च त्रिधाऽपि तत् । अर्थ-नस्यके तीन भेद हैं, यथा-विरे चन, वृंहण और शमन | विरेचन नस्य । विरेचनं शिशूलजास्वंदगलामये ॥२॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० वृंहणनस्य । बृंहणं बातजे शूले सूर्यावर्ते स्वरक्षये ॥ ३ ॥ नासाऽस्यशोषेवाक्संगेकृच्छ्रबोधेऽवबाहुके अर्थ- - वातज शूल, सूर्यावर्त ( आधासीसी का रोग ) स्वरभेद, नासा शोष, मुखशेष, वाणी की रुकावट, जिसमें आंख कठिनता से खुलती हो ऐसा रोग, और अवबाहुक ( वातजन्यरोग विशेष ) इन रोगों में वृंहण नस्य हितकारक है । For Private And Personal Use Only शमननस्य । शमनं नीलिकाव्यंगकेशदोषाक्षिराजिषु ४ ॥ अर्थ - नीलिका, व्यंग, केशरोग और अक्षिराज ( एक प्रकार का नेत्ररोग ) इन रोगों में शमननस्य हितकारक है । नयी औषधें । यथास्वं योगिकैः स्रेहैर्यथास्वं च प्रसाधितैः । कल्कक्वाथादिभिश्चाद्यं मधुपवासवैरपि वृंहणं धन्वमांसोत्थरसासुक्खपुररैपि । शमनं योजयेत्पूर्वैः क्षीरेण च जलेन च ९ ॥ अर्थ - यथा योग्य सरसों आदि के तेल,
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy